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(परिशिष्ट) लोकागच्छ की परस्परा
विक्रम की सोलहवी शताब्दी के प्रारम्भ काल मे जैन समाज मे एक धार्मिक क्रान्ति हुई, जिसके सूत्रधार थे लोकाशाह । लोकाशाह ने शास्त्रलेखन के प्रसग मे जैन धर्म के प्राचार मार्ग को जिस प्रकार समझा, समाज की तत्कालीन चर्या उससे पूर्णत भिन्न पाई । यह देख कर आपको वडा आघात पहुचा और ग्रापने समाज के सम्मुख सत्य को प्रकट कर दिया । विराव के तोत्रातितीव्र तोक्ष्ण एवं कटु वातावरण मे भी आप सत्य का प्रचार एवं प्रसार करते रहे । पोछे नहीं हटे । पुराने थोथे बाह्याडम्बरो से लोग घबरा कर ऊत्र चुके थे । धर्म मे आये हुए विकारो से सवही सच्चे धर्म प्रेमियो को वडो चिन्ता थी, ग्रात्मार्थियों की प्रान्तरिक कामना थी कि शुद्ध सयम मार्ग को विजय वैययन्तो पुन फहराई जाय ।
सुवत् १६३६ के तपागच्छीय यति श्री कातिविजय जी के लेखानुसार लोकाशाह ने स० १५०६ मे सुमतिविजयजी के पास दीक्षा ग्रहण की थी । लोकाशाह के उपदेशो से सौराष्ट्र के धर्मवीर जागृत हो उठे, सेठ लखमसी भारगाजी, नून श्री आदि भक्तो ने त्याग का झण्डा उठा लिया और ऋत्प समय मे ही सैकडो की सख्या मे ग्रात्मार्थी साधु वन गये ।
व्यवस्थित इतिहास लेखन के अभाव मे ग्राज पूरी जानकारी उपलब्ध नही हो रहो है। फिर भी इतना स्पष्ट है कि लोकागच्छ के साधुओ ने बहुत थोडे समय मे ही वहुत अच्छी सफलता प्राप्त कर ली । किन्तु पारस्परिक फूट एवं मान-सम्मान की भूख व पूज्य होने की स्पृहा के प्रवाह ने इस धार्मिक क्रान्ति को भी अधिक काल तक टिकने नही दिया । म्राठ पाटो के बाद ही उनके ग्राचार विचारो मे पुन शिथिलता आने लग गई और जैन साधु फिर से पालखी सरोपावधारी 'यति बन गये ।
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ऋषि जीवाजी के पश्चात् लोकागच्छ ग्रनेक भागो मे विभक्त हो गया । ये विभक्त समुदाय मुख्य रूप से गुजराती लोका, नागोरी लोका, और लाहोरी उत्तरार्ध लोका नाम से कहे जाने लगे ।
जीवाजी ऋषि गुजरात मे विचरे इसलिये उनका परिवार गुजराती