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श्राचार्य चरितावली
बचपन से ही प्रापका मन धर्म में रंगा हुया था। इसलिये आपके माता पिता ने आपका नाम धर्मदास रखा । पाठ वर्ष की आयु मे जव आप पौणाल जाने लगे तव केशवजी के पक्ष के लोकागच्छीय यति थी पूज्य तेजसिंहजी का सरखेज मे पधारना हुया । धर्मदासजी भी उनकी सेवा में जाने लगे। धार्मिक ज्ञान की शिक्षा लेने से उनको ससार से विरक्ति हो
गई।
कुछ समय के बाद वहाँ कल्याणजी नामके पोतियावन्ध श्रावक (एकलपातरी) पाये। उनके नवीन उपदेश को सुनने के लिए लोगो के साथ धर्मदासजी भी गये और उपदेश सुन कर वहुत सन्तुष्ट हुए। कल्याणजी श्रावक के प्राचार विचार से धर्मदासजी बडे प्रभावित हुए। कही कही यह भी उल्लेख मिलता है कि वे आठ वर्ष तक पोतियावन्ध श्रावक रहे।
एक वार भगवती सूत्र का वाचन करते समय उनको ऐसा पाठ मिला कि भगवान् महावीर का शासन २१ हजार वर्ष तक चलेगा। जव धर्मदासजी को यह प्रतीत हो गया कि इस समय भी शुद्ध संयम एव मुनि धर्म का पाराधन किया जा सकता है तो आप सच्चे सयमी की खोज मे निकल पड़े और सर्वप्रथम श्री लवजी ऋपि से मिले, फिर अहमदावाद मे श्री धर्मसिहजी महाराज के साथ भी आपका समागम हुआ।
श्री धर्मसिहजी महाराज के साथ आपकी तत्त्वचर्चा भी हुई। मालवे की कुछ पट्टावलियो मे लिखा है कि धर्मदासजी ने श्री कानजी महाराज के पास सूत्राभ्यास किया। लेकिन अपनी सत्रह वाते मान्य नही होने से उन्होने श्री कानजी महाराज के पास दीक्षा नही ली । कानजी महाराज श्री सोमजी के शिष्य हुए है और प्रभु वीर पट्टावली के लेखानुसार इनकी दीक्षा श्री लवजी ऋपि के स्वर्गाराहण के बाद मानी गई है । ऐसी दशा मे श्री कानजी के पास धर्मदासजी का ज्ञानाभ्यास आदि विचारणीय है ।
परन्तु यह निर्विवाद है कि कुछ मतभेद होने के कारण आपने श्रीधर्मसिंहजी के पास दीक्षा ग्रहण नहीं की। दीक्षा के वाद धर्मदासजी को