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श्राचार्य चरितावली
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वरसिहजी और कुंवरजी को शास्त्रार्थ करने का आदेश दिया । जीवाजी ऋषि के इन दोनों शिष्यों ने वहां जाकर चर्चा मे विजय प्राप्त की । इससे सघ मे वडी प्रसन्नता की लहर दौड गई ।
जीवाजी ऋषि के बाद सघ दो भागों में विभक्त हो गया । इसी समय मे जोवाजी ऋषि के शिप्य जगाजी के एक शिष्य जीवराज जी हुए. जिन्होंने सवत् १६०= के लगभग क्रिया- उद्धार किया ।
कहा जाता है कि इम समय लोकागच्छ मे ११०० ठारणा थे किन्तु संगठन के टूटने एवं अन्यान्य कारणो से उनके तीन-चार भाग हो गये । मणिलालजी महाराज ने अपनी पुस्तक के पृष्ठ १८२ पर जीवराजजी महाराज को केशवजी गच्छ के ६ क्रियेद्धारक आत्मार्थी सतो का साथी माना है और इस क्रिया उद्धार का समय १६८६ के बाद का लिखा है । जो परस्पर विरुद्ध है । हमारी गवेपणा के अनुसार पूज्य जीवराज का क्रिया उद्धार काल विक्रम संवत् १६६६ के लगभग होना चाहिए। सही स्थिति का पता ठोस ऐतिहासिक प्रमाणो के उपलब्ध होने पर ही चल सकता है ।
गुजराती लोकागच्छ मोटी पक्ष और न्हानी पक्ष की पट्टावली
जीवाजी ऋषि के वडे शिप्य वरसिहजी
ऋषि को स० १६१३ की ज्येष्ठ वदी १० के दिन वडोदा के भावसारो ने श्री पूज्य की पदवी प्रदान की । तव से गुजराती लोकागच्छकी मोटी पक्ष की गादी वडोदा मे कायम
हुई ।
मोटी पक्ष की पट्टावली
(2) वरसिंहजी ऋपि वडे
(१०) लघु वरसिहजी ऋपि
(११) जसवन्त ऋपिजी
(१२) रूपसिंहजी ऋपि
(१३) दामोदरजी ऋपि
न्हानी पक्ष की पट्टावली
(2) कुवरजी ऋषि
(१०) श्री मल्लजी ऋपि
(११) श्री रत्नसिहजी ऋषि (१२) केशवजी ॠपि
(१३) श्री शिवजी ऋपि
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