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प्राचार्य चरितावली
वाचना करते तव गोष्ठामाहिल भी वहा आकर आठवे पूर्व का भाव श्रवण करते किन्तु कांक्षा मोह के उदय से उन्होने सुनते हुए भी विपरीत ग्रहण किया। निश्चय से आत्मा का कर्म से वंध नहीं होता, इस नयवचन को विना समझे उन्होने एकान्त पकड लिया । विन्ध्य मुनि ने यह बात गणाचार्य को कह सुनायी ॥१२१।।
लावरणी। समाधान हित सूरी ने समझाया, अन्य गच्छ के स्थविरों से चर्चाया। संघ अधिष्ठायक सुर सुमिरण कीना, जिनवचनों से उसने निर्णय दीना।
देख आग्रही किया संघ ने बहारी ॥ ले कर० ॥१२२।। अर्थ:-गोप्ठामाहिल का समाधान करने के लिये प्राचार्य दुर्वलिका पुप्य ने उनको विविध प्रकार से समझाने का प्रयत्न किया। अन्य गच्छ के स्थविरो के साथ उनकी चर्चा कराई कितु उनका समाधान नहीं हुआ। तब उन्होने शासन के अधिष्ठायक देव का स्मरण किया। उसने प्रत्यक्ष होकर जिनवचनानुसार सत्य निर्णय दिया। फिर भी गोष्ठामाहिल ने अपने आग्रह को नहीं छोडा। फलस्वरूप सघ ने उसको आज्ञावाहिर घोषित कर दिया ॥१२२॥
संप्रदाय भेद
। लावणी ॥
शासन में हुआ भेद कह अब सुन लो, छ सौ नव की साल ध्यान में धर लो। जिन शासन का संघ एक था तब तक, प्रकट हुआ यह भेद नहीं था अब तक । बीज फूट कर कैसे शाख प्रसारी ॥ लेकर० ॥१२३॥