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आचार्य चरितावली
‘अर्थः-कालदोप से कालान्तर में जिन शासन मे दुर्वलता आई और वीर निर्वाण सम्वत् ६०६ में संघ की एकता मे एक दरार पड गई ।
जैन संघ श्वेताम्बर और इस तरह दिगवर के दो भागो में बँट गया। यह भेद कैसें और कहाँ पड़ा, यह संक्षेप मे बतलाया जा रहा है । अभी तक जिन शासनमे एक ही सघ था, उसमे कोई सम्प्रदाय भेद नही था । वीर स० ६०६ में भेद का बीज फूट कर कैसे फला फूला, इसका इतिहास इस प्रकार है ।।१२३॥
॥ लावणी ।। आर्य कृष्ण प्राचार्य एक दिन प्राये, पुर रथवीर के टोप उद्यान सुभाये । राजमान्य शिवभूति पुरोहित जानो, राजकार्य से काल अकाल नउ मानो।
गृह देवी सत्कार करत यो हारी ॥ लेकर० ॥१२४॥ अर्थ.-रथवीरपुर में एक दिन आचार्य आर्य कृष्ण पधारे और नगर के दीप उद्यान मे विराजमान हुए। वहाँ का राजमान्यपुरोहित शिवभूति जो राजकार्य मे वडा दक्ष था, वह राजकार्य से समय वेसमय घर पहुँचता । पुरोहितानी को प्रतिदिन उनकी प्रतीक्षा करनी पडती । एक दिन शिवभूति रात को बहुत देर से आये, जव कि पुरोहितानी की आँखो में नीद भरी हुई थी। पुरोहित की इस देर से आने की आदत से गृहिणी दुःखी थी। एक दिन उसने अपनी सास से अपने इस दुख की सारी गाथा कह सुनाई ॥ १२४ ।।
लावरणी।। बोली मां पुत्री न चित्त अकुलानो, द्वार बन्द दस वादन पै करवायो। जागृत रह कर मै सुत को समझाऊ, जव प्रावेगा सच्ची सीख सुनाऊ । आने पर मां ने नहीं द्वार उघारी ॥ ले कर० ॥१२॥