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आचार्य चरितावली
महाराणा जैत्रसिह ने इनको “तपा" इस विरुद से अलकृत किया। प्राचार्य सोमप्रभ ने अपकाय को विराधना के कारण जल कुकरण में और शुद्ध अचित जल का सयोग दुर्लभ होने से मरुदेश मे साधुग्रो का विचार निषिद्ध कर दिया था।
आगे इसकी शाखा का विस्तार से परिचय दिया जाता है ।।१३।।
लावणी ।। शिथिल वृत्ति का जोर बढ़ा शासन में, विजयचन्द्र भी मिले शिथिल यतिजन में। त्यक्त-शाल में रहे वर्ष द्वादश लग, देवभद्र ने धरा नही उसमे पग ।
पक्ष लगे उनके भी कई नर नारी ॥ देकर० ॥१४०॥ अर्थ:-जगत् चन्द्र के वाद शिथिलाचार का जोर बढ़ता गया । विजयचन्द्र सूरि स्वय उन शिथिल साधुग्रो के सहायक हो गये अर्थात् उनमें मिल गये।
देवेन्द्र मूरि को इस बात की खबर होने पर वे मालवा से खंभात आये. पर विजय चन्द्र सूरि उनको वदन करने नहीं गये । तव देवेन्द्र सूरि ने कहलाया- "तुम १२ वर्ष तक एक ही स्थान पर एक ही उपाश्रय मे कैसे ठहरे हो।"
उन्होने उत्तर मे कहा-"हम तो निर्ममी और निरहंकारी है।"
उनके उपेक्षा पूर्ण वचन से देवेन्द्र सूरि वहाँ नही ठहर कर "लघु पोणाल" मे ठहरे, इसलिये वे "लघु पोशालिक' कहलाये।
जो लोग उनके अनुयायी हुए वे लघु पोशालिक और जो विजयचन्द्र के भक्त रहे वे वृद्ध पोशालिक कहलाये । इस प्रकार दो शाखाएँ प्रगट हो गई॥१४०॥
लावरणी॥ विजयचन्द्र ने खुल्ले बोल कराये, साध्वी लाया प्रशनादिक बहराये।