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श्राचार्य चरितावली
के लिये उनकी कोई खास योजना व रूपरेखा उपलब्ध नहीं होती केवल श्रद्धा प्ररूपणा के बोल ही उपलब्ध होते है । ऋपि भाणाजी से लेकर ऋपि रूपजी और ऋपि जीवाजी तक पाठ पाठ तक शुद्ध संयम का पाराधन चलता रहा, फिर धीरे २ लोका गच्छ मे भी शिथिलाचार का प्रवेश होने लगा। महिमा पूजा को ओर उनका मुकाव वढा और ऋपि लोग ज्योतिप, निमित्त प्रादि का उपयोग करने लगे। श्री पूज्य शिवजी के समय में राजकीय सम्मान मिलने पर उनमे भी नगर प्रवेश पर उत्सव-स्वागत आदि का आडम्बर चल पडा । परिणामस्वरूप प्रात्मार्थी सतो ने शासनहित की चिन्ता से फिर क्रिया उद्धार का मार्ग स्वीकार किया ||१५||
लावरणी॥ जीश, धर्म, लवजी ने जोर लगाया, धर्मदास, हरजी भी पागे आया । सदी सतरवीं मे यह जोत जलाई, सोलह मे फिर धर्म ने उसे बढ़ाई। शिष्य निन्नाणु नारण चरण के धारी,
परम्परा अब सुन लो न्यारी न्यारी । लेकर० ॥१५२॥ अर्थ –लोकागच्छ मे से निकल कर श्री जीव ऋषि, श्री धर्मसिह जी, श्री लवजी ऋपि और श्री हरजी ऋपि ने गुद्ध शास्त्र सम्मत क्रिया के पालन मे जोर लगाया। उन्होने १७ वी सदी के अन्त मे शुद्ध व शास्त्र सम्मत सयम की ज्योति जगाई और स० १७१६ मे फिर श्री धर्गदासजी महाराज ने इस निर्मल ज्योति को और आगे बढाया। उनके तप, सयममय जीवन से प्रभावित होकर उनके निन्नाणू (EE) शिष्य हुए जो अच्छे विद्वान्, प्राचारनिष्ठ और प्रभावशाली थे। इनकी पृथक् पृथक् परम्परा इस प्रकार है ॥१५२॥
लावरगो।। जीवराज मुनि की गुणगाथा गाऊं, हुआ शिष्य विस्तार पूर्ण बतलाऊ ।