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श्राचार्य - चरितावली
सार्धं पुनमियां फल पूजा नहीं माने,
देवभद्र से प्रागमिया मत जाने । गरण परिवर्तन की मति उसने धारी ॥ दे कर०||१३६ ||
अर्थ - शास्त्र के अनुसार पूर्णिमा के दिन ही पाक्षिक प्रतिक्रमण करने का उल्लेख है, चतुर्दशी का नही । इसलिये पुनमिया गच्छ का पूर्णिमा को पर्व करने का विचार युक्तिसंगत ठहरता है । सार्धं पूनमिया के अनुसार प्रतिमा की पूजा मे फल का उपयोग उचित नही माना जाता । देवभद्र सूरि से प्रागमिया मत की उत्पत्ति हुई । ये श्रागमानुकूल अनुष्ठान मे ही श्रद्धा रखते थे । सयोग पा कर इनके मन मे - गरण परिवर्तन की बात उठी और तदनुकूल गच्छ की स्थापना की गई ।। १३६ ।
सार्ध पूनमिया गच्छ की उत्पत्ति - इस गच्छ की उत्पति स०१२३६ मे बताई गई है।
राजा कुमारसाल ने एक बार जब हेमचन्द्र आचार्य से कहा - " पूनमिया गच्छ वाले जैनागम के अनुसार चलते है या नही, मुझे इसकी जाच करनी है ।
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तव आचार्य ने उनको वुलाया, कुमारपाल द्वारा पूछे गये प्रश्नो का ठीक तरह से उत्तर न देने के कारण राजा ने उन साधुग्रो को अपने देश से दूर चले जाने को कहा । कुमारपाल के वाद पूनमिया गच्छ के आचार्य सुमतिसिह पाटण ग्राये । उस समय गच्छ का नाम पूछने पर उन्होने कहा हम सार्घपूनमिया गच्छ के है । इस गच्छ वालो की विशेषता यह है कि वे जिनमूर्ति की फल से पूजा नही करते । तत्र से सार्धं पुनमिया मत प्रकट हुआ !
॥ लावणी ॥
सुनि चन्द्रसूरि ने गरण का नाम चलाया, विगयायाग जीवन भर पूर्ण निभाया । सुमतिसिंह से सार्धपूनमिया कहते,
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वारह सौ पचास श्रागमिया चलते ।
क्षेत्र देव की पूजा नहीं स्वीकारी || लेकर ||१३७||
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