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आचार्य चरितावली
विना कोई साधु वहा नहीं रह सकता था। धर्मघोप मूरी को यह अच्छा नहीं लगा । उनको संवेगशील साधुनो का विहार नगर मे बाधारहित करना था । अत वे अपने मुनि परिवार सहित उच्जयनी आ पहुंचे।
योगी को पता चला तो वह बहुत ही क्रुद्ध हुआ और किसी भी तरह साधुयो को परेशान करने का उसने निश्चय किया। ___सहसा भिक्षा के लिये जाते हुए श्रमण साधुनो से उसकी भेट हुई। उसने पूछा-"क्या तुमको यहाँ रहना है ? कितने दिन रहना चाहते हो?"
श्रमण साधुनो ने अपना उज्जयनी मे स्थिरवास करने का विचार प्रकट किया। तो योगी ने अपना मान भग होते देख कर मत्र शक्ति द्वारा उपाश्रय मे बहुत से चूहो की रचना कर दी।
इधर उधर चहुँ ओर चूहो को दौडते देख कर श्रमण साधु भयभीत हुए और इधर उधर होने लगे तो गुरु ने उन्हे आश्वस्त किया और मत्र वल से एक घड़े को अभिमत्रित किया। फलस्वरूप योगी अपने स्थान पर ही पीडा अनुभव करने लगा और अन्त मे उसने असह्य वेदना होने से गुरु चरणो मे आकर क्षमा याचना की।
प्राचार्य धर्मघोष ने दूसरे नगर मे भी मंत्र वल से शाकिनियो के उपद्रव का निवारण किया।
इस प्रकार योगी को प्रभावहीन कर आपने उज्जयनी का विहार माधुग्रो के लिये निरापद कर दिया ।।१४२।।
लावरणी॥ तेरह सौ बत्तीस के लगभग जानो, सोमसूरि ने भीलड़ी वर्षा ठानो। भीमपल्ली का भंग जान चल दीने, प्रथम पूणिमा चले हानि से भीने ।
रहे कई प्राचार्य सहे दुख भारी॥ लेकर० ॥१४३॥ अर्थ :-- सवत् १३३२ के लगभग की वात है कि सोमभद्र सूरि ने