________________
आचार्य चरितावली
७७
तपा गच्छ की उत्पत्तिः- जगन् चन्द्र सूरि ने अपने गच्छ की शिथिल क्रिया देख कर गुरु अाज्ञा से चैत्र गच्छीय देवचन्द्र उपाध्याय के सहयोग से क्रिया उद्धार किया। उन्होने इस कार्य के लिये असाधारण त्यागवृत्ति और शास्त्रोक्त शुद्ध क्रिया स्वीकार की।
दिगवर आचार्यो के साथ वाद मे विजय पाने से मेवाड के महाराणा जेत्रसिंह ने जगत् चन्द्र मूरि को "हिरला" इस उपाधि से विभूपित किया। उन्होने आजीवन आर्यविल तप की कठोर साधना करते हुए जव १२ वर्ष पूर्ण किये तब महाराज ने उनको "तपा" इस विरु से सम्मानित किया। इस प्रकार तव से अर्थात् वि० सं० १२८५ से तपागच्छ की उत्पत्ति हुई।
__ जगत् चन्द्र के शिप्य विजयचन्द्र से वृद्ध पोशालिक तपागच्छ की और देवेन्द्र मूरि से लघु पौणालिक तपागच्छ की उत्पत्ति हुई।
विजयचन्द्र सूरि पीछे से शिथिलाचारी बन गये, जव कि देवेन्द्र सूरि शुद्ध क्रिया का पालन करते हुए पट्टधर वने और चिरकाल तक जिन शासन का अच्छी तरह उद्योत करते रहे ।
' विजयचन्द्र सूरि के समय मे साधु को वस्त्र की पोटलिका रखने, नित्य प्रति विगय सेवन करने और तत्काल किये हुए उष्ण जल के ग्रहण करने की छूट चालू हो गई थी।
इस प्रकार वि० सं० १२८५ में तपागच्छ की उत्पत्ति वतलाई गई है।
फिर सोलहवी सदी मे लोकागच्छ, कड़वा मत, वीजामत आदि अनेक गच्छ हुए । लौकाशाह और आनन्द विमल सूरि आदि ने क्रिया उद्धार कर निर्मल यश कीर्ति प्राप्त की ॥१३५॥
लावणी ॥ चतुर्दशी का पर्व शास्त्र नही कहता, पूनमियां गरण का मत युक्त ठहरता।