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आचार्य चरितावली
ग्वेताम्बरो का श्वेत वस्त्र शुक्ल ध्यान का प्रतीक है जो सिद्धि मे सहायक होता है और वह सव परम्परानो के लिये आदरणीय है ।।१३२।।
लावरणी।। सप्तवीस पट्ट चरण मार्ग रहे चाली, चैत्यवास से बढ़ी शिथिलता भारी । वीर काल अम्बयांसी मे जानो,
चैत्यवास का जोर रहा नही छानो।
द्रव्य और जल फूल किये स्वीकारी लेकर०।१३३।। अर्थः-वीर निर्वाण संवत् ६२० के आसपास चन्द्र सूरि से चन्द्र गच्छ या चन्द्र शाखा की उत्पत्ति हुई और सामत भद्रसूरि से 'वनवासी' गच्छ नाम प्रसिद्ध हुआ। ये निर्मोह भाव से वन या उद्यान मे रहते इसलिये लोको ने इस गच्छ का नाम वनवासी रखा।
वीर संवत् ६४५ मे वल्लभी नगरी का भग हुआ और ८८२ में चैत्यवास का जोर वढा । जैन साधुओ के कठोर प्राचार की पालना मे अपनी असमर्थता से कितने ही साधु शिथिल होने लगे और वे अन्त मे चैत्यवासी हो कर रहने लगे।
धीरे-धीरे इस चैत्यवास परम्परा का प्रभाव वढता गया और वीर म० ८८२ से तो वह अधिक वलवती हो गई हो, ऐसा प्रतित होता है।
भगवान् महावीर से २७ पाट तक शुद्ध मार्ग चलता रहा। किन्तु चैत्यवास से साधुग्रो के प्राचार मे शिथिलता का जोर वढने लगा। जैसा कि उपाध्याय धर्मसागर जी ने अपनी तपागच्छ पट्टावली के पृष्ठ ६० मे लिखा है-“साधु लोग मठवास की तरह चैत्यवास करते । मन्दिर के द्रव्य को अपने लिये उपयोग करते, साध्वियो का लाया हुआ आहार खाते और सचित्त फल-फूल और जल का उपयोग करने लगे।"
चन्द्र आदि शाखायो से जैसे गच्छभेद का विस्तार हुअा वह नोचे बताया जा रहा है ।।१३॥