________________
६२
आचार्य चरितावली
इनको अवद्ध दृष्टि उत्पन्न हुई । वधभेद की बात इनके समझ मे नही आई । फलस्वरूप आर्य रक्षित के शासन मे ये शकाशील रहे और सत्य को छिपाने से निन्हव कहे गये ॥११३॥
॥ लावणी ॥
कर्मबन्ध के विषय शास्त्र बतलावे, साहिल के 'मन मिथ्या तर्क सुहावे । बद्ध. पुट्ठ, सुनिकाचित गंध बतावे, क्षीर, नीर या कंचुकी सम समभावे । एक रूप मे कैसे हो ́ अधिकारी || लेकर० ॥ ११४ ॥
- र्थः - शास्त्र में कर्म-वन्ध के 'सम्बन्ध मे युक्ति पूर्वक समझाया गया है । फिर भी माहिल के समझ मे बात नही आई। वह वैसे ही मिथ्या तर्क करता रहा कि वध के वद्ध, स्पष्ट और निकाचित रूप से तीन भेद किये गये हैं एवं ग्रात्मा के साथ कर्म का वध क्षीर- नीरवत् है या सर्पकचुकी सम ? और यदि एकरूप नीर-क्षीरवत् माना जाय तो फिर श्रात्मा शुद्ध वुद्ध पद को कैसे प्राप्त करेगा ? ॥ ११४ ॥
उत्तर
॥ लावणी ॥
एक रूप होकर भी जल सूकावे, आत्मप्रदेश से कर्म किया से जाने | कंचुकी सम संबंध न युक्त कहावे, सभी मुक्त हो जीव भूल दयो आवे |
विध्य आदि ने युक्ति वताई सारी || लेकर० ॥११५॥
अर्थ:- दूध मे पानी एक रूप होकर भी ग्रग्नि के सयोग से सूख जाता है | वैसे कर्म भी करणी द्वारा आत्मप्रदेश से छूट जाते है । अतः दूध पानी की तरह ग्रात्मा के साथ कर्म का वध माना गया है । कर्मवन्ध मे कचुकी का उदाहरण उचित नही । वैसा मानने पर सभी जीव मुक्त रहेंगे,