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आचार्य चरितावनी
- अर्थ -वीर सम्बत् ६२० मे सोपारक नगर के एक प्रमिद जैन धर्मानुयायी सेठ जिनदत्त ने, उस समय देश मे सर्वत्र व्याप्त भयकर दुष्काल से अत्यन्त सतप्त हुए अपने परिवार के दुख में दुखित होकर एक दिन अपनो धर्मपत्नी ईशरी देवी के सांय परामर्श करके यह निर्णय किया कि अव तो इस असह्य दुष्काल के दुख से छुटकारा पाने के लिये अपने सम्पूर्ण परिवार के साय विपपान करके इस शरीर का अन्त कर लेना चाहिये । निर्णयानुसार जिस दिन सारे परिवार के लिये अत्यन्त कठिनाई से उपलब्ध थोडे वहुत बने हुए लभ पाक भोजन में वे संखिया मिला रहे थे कि सयोग से उसी समय वज्रसेन मुनि थोडी वहुत शुद्ध भिक्षा मिलने की प्रामा से उसी सेठ के घर पहुचे ।
विप मिश्रित लक्ष पाक भोजन की बात जानकर उन्हें अपने गुरु प्राचार्य वज्र की भविष्य वाणी स्मरण हो पाई। इस पर से मुनि वज्रसेन ने सेठ से कहा कि इस विप मिश्रित भोजन के करने की अव आवश्यकता नहीं है। इतने दिन कप्ट मे निकाले है तो एक दिन और निकाल दो। कल प्रभूत मात्रा मे अन्न उपलब्ध हो जायगा। यह कहकर मुनि ने उस परिवार को मौत के मुह मे जाने से बचा लिया ॥१०३11
॥ लावणी ।। देख अन्न जिनदत्त ईसरी आये, चार तनययुत गुरु चरणो सिरे न्हाये। प्रतिभाशाली शिप्य चतुर्विंग गाजे, चन्द्र-गच्छ तब से ही जग में छाजे ।
चारो की शाखाएं जग विस्तारी ॥ले कर०॥१०४॥ अर्थ:-मुनि के कथनानुसार अगले दिन देश देशान्तर से आया हुआ धान्य देखकर जिनदत्त और ईसरी बडी श्रद्धा के साथ मुनि के पास आये और चारो पुत्रो के सग मुनि चरणो में दीक्षित हो गये । प्रतिभाशाली चारो शिप्यो के नाम पर चन्द्र, नागेन्द्र, निवृत्ति और विद्यावर ये चार श्रमण गच्छ चले । कहा जाता है कि इन्ही चार के विस्तार से अन्य ८४ गच्छ निकले ।।१०४॥