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आचार्य चरितावली
पूर्व ज्ञान के वल से उन्होने आर्य वज्रसेन से यह भी कहा कि सोपारकनगर मे ही तुम्हे धर्म का लाभ भी मिलेगा। ऐसा ही हुआ और सोपारक के सेठ जिनदत्त ने अपने चार पुत्रो के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। उन चारो पुत्रो के नाम से चद्र, नागेन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर नाम की चार शाखाएं चल पडी ।।१०१॥
लावरणी ।। शिष्यों के निर्वाह हेतु मुनि बोले, विद्या से ला, अन्न धरूं तुम खोले । कहे शिष्य दूषित भोजन नहिं लेना, संयम विन हम सब को जीवन देना।
मुनियो के मन में साहस था भारी॥लेकर०॥१०२॥ अर्थः-उस समय देश मे सर्वत्र व्याप्त भयंकर दुर्भिक्ष के कारण श्रवण साधुओ को शुद्ध भिक्षा मिलना अत्यन्त कठिन हो गया था। ऐसी परिस्थिति में अपने शिष्यो को दुर्लभ शुद्ध भिक्षा के कष्ट से वचाने के लिये प्राचार्य वज्रसेन ने उनसे कहा-"विद्या बल से तुम चाहो तो, तुम सवके लिए शुद्ध आहार उपलब्ध करादू ?"
परन्तु शिष्यो ने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होने विद्या वल का दुरुपयोग करने की अपेक्षा अनशन करके प्राण त्याग देना अधिक उत्तम समझा। कितना वडा साहस था ॥१०२॥
सोपारक की घटना इस प्रकार है
। लावणी ॥ वीरकाल छ बीस सेन के युग मे, सोपारक का सेठ ख्यात था जग में। काल व्याल से पीड़ित विष धोलावे, देख मुनि को कहा अमिश्र दिलावे । जान मुनि ने हाल दिया दुख टारी ॥लेकर०॥१०३।।