________________
आचार्य चरितावली मध्यस्थों ने खुश हो विजय सुनाई, सिद्धसेन ने भी रक्खी सच्चाई।
गुरुचरणों में लिये महाव्रत धारी ।। लेकर० ॥६७।। अर्थ:-सिद्धसेन ने ग्वालो को मध्यस्थ मान कर वृद्धवादी से वही वाद प्रारम्भ कर दिया । वृद्धवादी ने मधुर सगीत मय लोक भाषा मे उत्तर दिया और सिद्धसेन संस्कृत में अपनी विद्वत्ता दिखाता रहा। मध्यस्थों ने वृद्धवादी की बात सुन समझ कर खुशी से उनकी विजय घोपित कर दी। सिद्धसेन ने भी अपने वचन को निभाने के लिये उनका शिप्यत्व स्वीकार किया, एव गुरु द्वारा प्रदत्त पंच महाव्रत धारण करके अपने को गुरु चरणों मे अर्पित कर दिया ।।६७।।
लावरगो।। विचरत दोनो उज्जयनी मे आये, देख प्रशंसा भूधर मन चकराये । करण परीक्षा मन में वन्दन कीना, सिद्धसेन , ने धर्म वृद्धि कह दीना।
भूपति के मन में जगी भावना भारी ॥ लेकर० ॥६॥ अर्थ-सिद्धसेन के शिष्य वन जाने पर दोनो गुरु शिष्य विचरते हुए उज्जयनी नगरी मे आये । वहाँ पर सिद्धसेन की प्रशसा सुनकर राजा विक्रमादित्य का मन उनकी ओर आकर्षित हुआ और मुनि को देखकर राजा ने परीक्षा हेतु उनको मन मे ही अभिवादन किया । सिद्धसेन ने उत्तर मे हाथ उठाकर विक्रम को "धर्मवृद्धि" कह दिया। इससे राजा विक्रम के मन मे उनके प्रति श्रद्धा जगी ॥६॥ , - . . .
लावरणी।। विक्रम ने उपहार भेट दिया उनको, हमें नही, दो ऋणपीड़ित पुरजन को। जिनवचनों से भूपति को समझाया, विचरत मुनिवर चित्रकूट में पाया। विक्रम ने उपकार किया जग जहारी ॥ लेकर० ॥६६।।