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प्राचार्य चरितावनी
अर्थः-वृद्ध पुरोहित बोला, "श्रमरण साधु तो बन जाऊ पर दो वस्त्र और छत्र आदि की छूट चाहता हूँ।'
आर्य रक्षित ने कटिपट धारण करने की छूट मंजूर कर उसको प्रवज्या दे दी।
एक दिन वृद्ध वोला, "छत्र विना नहीं चलता।"
रक्षित ने उसकी भी छूट दे डाली। कमडलु और जनेऊ यज्ञोपवीत रखने की भी छूट और ले ली ।।६।।
॥ लावणी ॥ मार्ग लगा कर खंत सुधारण चाहे, बाल सिखाये छत्री नहीं सिर नांयें । बाल कथन से छत्र त्याग करवाया, यज्ञ सूत्र भी क्रम से दूर कराया। मति-बल से थेवर की जंक निवारीले कर०1८७॥
अर्थ-आर्य रक्षित ने उसे श्रमण साधु मार्ग पर लगा कर फिर सुधारना चाहा । इसके लिए उन्होने एक युक्ति निकाली। उन्होंने इसके लिये कुछ वच्चो को तैयार किया। वच्चो ने वृद्ध को देख कर कहा, "छत्त वाले को वदन नही करना । ये श्रमण साधु नही है।"
वालको की बात से वृद्ध ने छत्र लगाना छोड़ दिया। फिर यज्ञसूत्र भी निकाल दिया । इस प्रकार धीरे-धीरे रक्षित ने अपनी युक्ति एव मतिवल से वृद्ध की शका मिटा दी । फल स्वरूप अन्त मे वह द्रव्य-भाव रूप उभय - लिग वाला जैन मुनि हो गया ||७||
|| लावणी ॥ , देत वाचना अपना ज्ञान भुलाता,
अनुप्रेक्षा बिन पूर्व शिथिल हो जाता। , मेधावी की देख दशा गुरु सोचे,
भावि प्रजा का मेधाबल पालोचे। पृथक् किये अनुयोग महा मतिधारी ॥ले कर०॥८॥