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- प्राचार्य चरितावली
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इसका भय है।" पर छोटे म नि की श्रद्धा को दृढ करने हेतु शकेन्द्र उपाश्रय का द्वार विपरीत दिला मे बदल कर चले गये ॥२॥
आर्य वज स्वामी
॥ लानरणी ।। रक्षित के विद्या गुरु बज पिछानो, धनगिरि के प्रिय पुत्र यशस्वी मानो। गर्भकाल मे पत्नी को तज दीना, सिंह गिरि के चरणो मे व्रत लीना।
सुनंदा को हुना पुत्र श्री कारी ॥ ले कर०॥६॥ अर्थ -ग्रार्य रक्षित के विद्या गुरु वज्रस्वामी थे जो धनगिरि के यगस्वी पुत्र थे । धनगिरि ने अपनी पत्नी आर्या सुनन्दा को गर्भवती छोडकर- मुनि सिंहगिरि के पास श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली। फिर कुछ काल के बाद आर्या सुनन्दा की कुक्षी से एक भाग्यगाली पुत्र का जन्म हुआ ।।९३॥
। लावणी ॥ वाल ज्ञान से पूर्व जन्म संभारे, मातृस्नेह को क्षीण करण मन धारे। रुदन करे अति दिन भर मां घबरावे, एक समय धनगिरि भिक्षा को आवे।
दीर्घ काल से चिन्तित थी महतारी ।। ले कर० ॥१४॥ अर्थ -गर्भकाल से ही वालक मे कोई पूर्व जन्म के उत्तम सस्कार पड़े थे, अतः जन्म लेने के कुछ समय पश्चात् ही उसको जातिस्मरण जान हो गया । वह पूर्व जन्म की स्मृति करने लगा और माता का स्नेह कैसे घटाया जाय इसकी युक्ति सोचकर दिन भर रुदन करने लगा। मॉ संभालतेसंभालते थक गई पर बालक का रुदन बन्द नही करा सकी । इससे वह वडी चितित थी। इसी बीच कुछ महीनो वाद वहाँ वालक के पिता मुनि धनगिरि का आगमन हुया । वे जब भिक्षार्थ घर आये तो आर्या सुनन्दा अत्यन्त प्रसन्न हुई ।।१४।।