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धानायं चरितावली
अर्थः-दशार्णपुर के पुरोहित सोमदेव के पुत्र रक्षित बडे ही नामी हुए । उन्होने पाटलीपुत्र मे वर्षों तक शिक्षा ग्रहण की और अनेक विद्यायो में पारंगत होकर पुन दशार्णपुर लोट आये। नगर के प्रमुग्व जनों ने उनका हार्दिक स्वागत किया । सव को चरण वदन कर रक्षित अपनी माता के पास आये और सिर झुका कर माता का चरण स्पर्ग किया ॥७४।।
लावरणी। मातृ मौन से रक्षित मन अकुलावे, मात दया कर कृपा दृष्टि बरसावे। बोली मॉप्रिय लाल सीख क्या पाया, कला सीखने से न प्रात्महित पाया।
मात्मज्ञान सीखो ये इच्छा म्हारी ।।लेकर०॥७५।। .. अर्थ-पुत्र के प्रति मातृवात्सल्य अनठा होता है, फिर भी रक्षित ने चरण गदन के समय भी माता को मौन देखकर चिन्ता व्यक्त की।
उसने माता से कहा "माँ ! बोलती क्यो नही हो, इस समय तो तुझे वडी खगी होनी चाहिये ।" माँ बोली, "वत्स । तू क्या सीख कर आया है जिससे मैं खुशी मनाऊ । इस पेट भराऊ विद्या से तो कोई कल्याण होने वाला नहीं है। मेरी इच्छा तो यह है कि तुम आत्मज्ञान की शिक्षा लो और अपना कल्याण करो ।।७।।
लावणो।। पुत्र पढ़ा तू भव-वर्द्धन की विद्या, पाऊ मै संतोष मिला(पढ़ो)सद् विद्या। दृष्टिवाद का ज्ञान कहाँ से पाना, साधु चरण सेवा से ज्ञान मिलाना ।
परिचय पा रक्षित ने की तैयारी लेिकर०॥७६॥ अर्थ.-वेटा । तूने ससार भव-वर्द्धन की विद्या पढ़ी है, इससे मुझे सतोप नही, सद् विद्या पढो तो मुझे सतोप होगा। । · पुत्र ने पूछा, "मां ! सद् विद्या क्या है ?"