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प्राचार्य चरितावली
लावरणी॥ शासन बल से निन्हव की न चली तब, भूल मानकर सुपथ लगे वे भी तब । आर्य सुहस्ती हुए प्रभावक मुनिवर, सप्रति ने बनवाये कहते जिन घर ।
मिले न कोई बात पुष्टि करनारी ॥ लेकर० ॥३६॥ अर्थः- जव संघ बल से निन्हव को नही चल पाई तब भूल स्वीकार कर उसने फिर सत्यमार्ग स्वीकार किया । महागिरि के समान आर्य सुहस्ती भी बड़े प्रभावक मुनि हुए, उनसे प्रतिवोध पाकर संप्रति राजा ने जिन धर्म की वडी सेवा की । कहा जाता है कि उसने पृथ्वी को जिन मंदिर से मंडित कर दिया । परन्तु इसकी पुष्टि मे कोई सबल प्रमाण प्राप्त नही होता, न सम्प्रति द्वारा निर्मापित कोई मूर्ति ही प्राप्त होती है ॥३६॥ महागिरी और सुहस्ति के नंश और सद्गुणों का परिचय
लावरणी॥ महागिरि का वंश साधना प्रेमी, कौटिक गरण में था विद्यावल नामी। विद्यावल से भिक्षा नहीं मिलाई, संयमप्रिय कई अंत समाधि लगाई।
दुर्बल मन कई शिथिल वत्ति ली धारी लेकर०॥४०॥ अर्थ-महागिरि का वश अधिक साधना-प्रेमी था। उनके प्रमुख शिप्य बहुल बलिस्सह आदि हुए। दूसरी ओर सुहस्ती के शिप्य सुस्थित से कौटिक गण चला। इसमे विद्यावल की विशिष्टता पाई जाती है । दुभिक्ष की बाधा में भी सयमप्रिय सतो ने विद्यावल से भिक्षा प्राप्त करना नही चाहा, किन्तु बहुत से आत्मार्थी मुनियो ने तो शुद्ध भिक्षा के अभाव मे अनशन पूर्वक जीवन विसर्जन कर दिया और कई मंद मनोबल वालो ने शिथिल वृत्ति स्वीकार कर ली ॥४०॥
लावणी ।। गिरि ने पडिमा साधन करना ठान