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प्राचार्य नरितावली
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ये प्रथम कालकाचार्य थे । महागिरि के प्रथम पट्टधर वहुल-वलिस्सह हुए। आर्य सुहस्ती के शिष्य सुस्थित सूरि से कौटिक गण प्रकट हुआ । कहा जाता है कि सूरि मत्र का क्रोड़ वार जाप करने से इनके गच्छ को कौटिक कहा जाने लगा। सुधर्मा से इस प्रकार पाठ पाट तक निग्रंथ गच्छ चलता रहा ।।४५|| दूसरे कालकाचार्यः
|| लावणी ॥ गर्दभिल्ल उच्छेद कालकाचारी, वर्ण चार सौ त्रेपन में बलधारी। सरस्वती भगिनी को मुक्त कराया, अनहोनी हुई बात हृदय थर्राया।
सव के मन मे मची उदासी भारी ॥ लेकर० ॥४६॥ अर्थ - वीर सवत् ४५३ मे गर्दभिल्ल को युद्ध मे हराने वाले दूसरे कालकाचार्य हुए। उन्होने शको को साथ लेकर गर्दभिल्ल से लड़ाई की और अपनी सरस्वती वहिन, जो साध्वी थी, को राजा गर्दभिल्ल के चंगुल से मुक्त कराने के लिए पूरा जोर लगाया । एक अहिंसक मुनि का साध्वी को बचाने के लिये हिसक युद्ध मे कूद पड़ना अनहोनी वात थी। साध्वी के हरण से सव के मन में उदासी छा गई थी ।।४।। संक्षिप्त घटना इस प्रकार है:
हालावरणी॥ गर्दभिल्ल नृप सरस्वती पर मोहा, किया हरण उसने, किया शासन द्रोहा। संघ विनय से भी उसने नहीं माना, कालक के मन हुआ दर्द अति छाना ।
करा सती को मुक्त शुद्धि कर डारी लेकर०॥४७॥ अर्थः-राजा गर्दभिल्ल प्राचार्य कालक की भगिनी सरस्वती नामक माध्वी के रूप पर मुग्ध हो गया और वह उस साध्वी का हरण कर अपने