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आचार्य चरितावली निन्नाणवे वर्ष की पाई। वीर संवत् दो सौ पंद्रह में आप सुर-पद के अधिकारी हुए ॥३०॥
|| लानरणी ॥ वीरकाल दो सौ चवदह जब पाया, अव्यक्तवादी निन्हव तब कहलाया। बलभद्र राय ने दूत भेज बुलवाये, हस्ति-कटक मर्दन से बोध कराये।
लज्जित हो मुनि ने ली भूल सुधारी । लेकर० ॥३१॥ अर्थः-वीर निर्वाण सवत् दौ सौ चवदह की साल आपाढाचार्य के शिष्यों से अव्यक्तवादी निन्हव हुआ। राजा वलभद्र ने जव उनको नगर के उपवन में पाये जाना तो दूत भेज कर वुलवाया और हाथी के पैरो के नीचे मर्दन करने का आदेश दिया । साधु बोले-"अरे श्रावक ! तुम साधुओ के साथ अभद्र व्यवहार कैसे कर रहे हो ?" राजा ने कहा-"महाराज ! न मालूम तुम साधु हो या साधु के वेप मे चोर हो । तुम्हारे मत से साधुअसाधु का सही निश्चय नही होता । साधुनो ने लज्जित हो अपनी भूल सुधार ली। वे फिर मूल मार्ग मे स्थिर हुए और परस्पर वदन-व्यवहार करने लगे 1३१
॥ लानरणी ।। आर्य महागिरि सुहस्ती मुनि राजे, स्थूलभद्र के पट्ट गरणी पद छाजे । महागिरि जिनकल्प धर्म प्राराधे, सुहस्ती भी विनय भाव नित साधे ।
संप्रति को हुआ बोध देख व्रतधारी । लेकर० ॥३२॥ अर्थः-आचार्य स्थूलभद्र के पट्ट पर आर्य महागिरि और मुहस्ती विराजमान हुए। ये दोनो स्थूलभद्र के शिष्य होने से गुरुभाई थे । स्थूलभद्र के पश्चात् आर्य महागिरि आचार्ग हुए। ( ये तीस वर्ष तक घर में रहे, चालीस वर्ष सामान्य मुनिपद पर साधना करके फिर प्राचार्य हुए, तीस वर्ष आचार्य पद से शासन की सेवा कर सौ वर्ष की आयु मे स्वर्ग के अधिकारी वने) । आचार्य महागिरि मुख्य रूप से साधनाप्रिय थे अतः अनेकों