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ही तय कर पाई कि वह निर्वाण को उपलब्ध हो गया । उस आत्मा के सारे सपने अब जीवनं के वे सत्य बन चुके थे, जिन सत्यों का संबंध सपनों से नहीं होता । मृत्यु हमेशा सपनों की होती है, सत्य की कभी मृत्यु नहीं होती । व्यक्ति सत्य को उपलब्ध हो जाता है, मृत्यु से पहले निर्वाण की लौ सुलग उठती है । ज्योति परम ज्योति को आत्मसात कर लेती है ।
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मृत्यु सब छीन ही लेती है। मनुष्य के हाथ में, केवल हाथ है। शेष सब जैसा होना है, होता रहेगा । फिर तुम व्यर्थ की इच्छाएँ और चिन्ताएं पालकर स्वयं को क्यों स्पर्धा बना रहे हो, विचारों के उधेड़बुन में स्वयं को क्यों उलझा रहे हो । मेरे जाने, जो प्राप्त हुआ है, उसमें अगर व्यक्ति सन्तुष्ट हो जाये, प्राप्त का संतोषपूर्वक उपयोग करे, तो यह प्रथम सूत्र सार्थक रूप ले लेगा ।
दूसरा सूत्र होगा कि आदमी ईर्ष्या में न फंसे । मिटा ही डालो अपनी ईर्ष्या को, बुझा ही दो इसकी चिता को । बड़ा विकृत होता है ईर्ष्या की आग का धुआं । दम ही घोट डालता है । ईर्ष्या में जकड़कर तुम जीवन को माधुर्य नहीं दे पाओगे, जीवन को केवल एक प्रतिस्पर्धा बना जाओगे । अगर किसी का जीवन प्रतिस्पर्धा बन गया, तो वह जीवन, जीवन नहीं एक गलाघोंट संघर्ष मात्र होगा । हम अपने मौलिक विकास में विश्वास रखें, कृष्ण के इसी सूत्र को आधार बनाकर मैं यह दूसरा सूत्र देना चाहूंगा कि तुम अपने मौलिक विकास में विश्वास करो । किसी से ईर्ष्या या किसी से जलकर आगे बढ़ने की इच्छा मत रखो। कोई बढ़ रहा है, तो बढ़े। इससे मुझे क्या । हमारा जितना मौलिक विकास हुआ, हम उसमें तृप्त हैं । हमें कोई जलन न हो, न पीड़ा सताये ।
जीवन को प्रतिस्पर्धा मत बनाइये । जीवन का श्रेय आपके निजी और मौलिक विकास में है। विकास चाहे आंशिक ही क्यों न हो, पर होना चाहिये अपने पाँवों के बल पर । औरों से सहयोग लो, पर औरों को पछाड़ने की भावना अन्तरमन का वैमनस्य और दारिद्रय है। औरों की टांग खींचने के चक्कर में, तुम उसके भी अवरोधक बने और स्वयं को भी प्रगति की राहों से जोड़ न पाये ।
एक पुरानी कथा तो सुनी ही होगी कि एक भक्त ने भगवान की आराधना की। भगवान ने उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसे वरदान मांगने को कहा । उसने भगवान से वरदान मांगा कि भगवान, जो मैं चाहूं वह हो जाये । भगवान
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मुक्ति का माधुर्य | 49
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