Book Title: Jago Mere Parth
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 216
________________ सारे भूख से मर रहे थे, लेकिन जैसे ही वे खाना खाने को बैठे, तो देखा कि घर के बाहर दरवाज़े पर एक भिखारी खड़ा था और खाने के लिए मांग रहा था। ब्राह्मण ने अपनी पत्नी से कहा कि तुम लोग भोजन कर लो और मेरे हिस्से की जो रोटी है, वह इस भूखे को दे दो । वह भूखा आदमी रोटी खाने लगा और रोटी खाते-खाते उसने कहा-मैं अभी भी भूखा हूँ। मेरा पेट नहीं भरा है । ब्राह्मणी ने कहा-इसे मेरे हिस्से की भी रोटी दे दी जाए। ब्राह्मणी की रोटी भी दे दी गई, मगर फिर भी वह भूखा रहा । बच्चों ने माता-पिता से कहा-आपने अपनी-अपनी रोटी दे दी । एक दिन हम भी भूखे रह लेंगे, तो कौन-सा फ़र्क पड़ेगा। हमारे द्वार पर कोई प्रार्थी भूखा नहीं लौटना चाहिये । बच्चों ने भी अपनी रोटियाँ उस व्यक्ति को सौंप दी । भूखे ने रोटियाँ खाईं, पानी पीया और चल दिया। ___ गिलहरी ने आगे का वृत्तांत बताया कि उस भूखे व्यक्ति के भोजन करने के बाद मैं उधर से गुजरी । जिस स्थान पर उसने भोजन किया था, वहाँ रोटी के कुछ कण बिखर गये थे। मैं उन कणों के ऊपर से गुजरी, तो मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जहाँ-जहाँ मेरे शरीर पर वे कण लगे थे, वह सारा सोने का हो गया। मैं चौंक पड़ी। उस छोटे-से आदमी के अंश भर दान से, एक छोटे से शुभ-कर्म से मेरे शरीर का आधा हिस्सा सोने का हो गया। मैंने यहाँ के अश्वमेध यज्ञ के बारे में सुना, तो सोचा कि वहाँ महान् यज्ञ हो रहा है, महादान दिया जा रहा है, तप तपा जा रहा है। शुभ से शुभ कर्म समायोजित हो रहे हैं। यदि मैं इस यज्ञ में शामिल होऊं, तो मेरा शेष शरीर भी सोने का हो जायेगा, लेकिन युधिष्ठिर, मैं एक बार नहीं, सौ बार तुम्हारे इन कणों पर, दान से गिरे इन कणों पर लोट-पोट हो गई हूँ, मगर मेरा बाकी का शरीर सोने का न बन पाया । मैं यह सोच रही हूँ कि असली यज्ञ कौन-सा है-तम्हारा यह अश्वमेध यज्ञ या उस ब्राह्मण की आंशिक आहुति वाला वह यज्ञ? युधिष्ठिर, तुम्हारा यह यज्ञ केवल एक दंभाचरण भर है। अगर जीवन में ब्राह्मण का-सा यज्ञ समायोजित हो सके, तो जीवन का पुण्य समझो। ऐसा कोई यज्ञ न लाखों खर्च करने से होगा और न ही घी की आहुतियों से होगा। भूखे-प्यासे किसी आदमी के लिए, किसी पीड़ित, अनाथ और दर्द से कराहते व्यक्ति के लिए अपना तन, अपना मन, अपना धन-कोई भी अगर अंश भर भी दे सको, प्रदान कर सको, तो यह आपकी ओर से एक महान् श्रद्धा स्वयं एक मार्ग | 207 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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