Book Title: Jago Mere Parth
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 219
________________ बँद चले सागर की ओर विश्व के एक आदर्श ग्रंथ गीता की परिचर्चा के हमने सत्रह पड़ाव पार कर लिये हैं और अब हमारी दस्तक अठारहवें पड़ाव के प्रवेश-द्वार पर है । अठारहवाँ पड़ाव तो बस एक नाम भर का है । यह पड़ाव तो वास्तव में गीता की मंजिल है। मनन के शिखर की यात्रा तो पूरी हो चुकी है। अब तो केवल ध्वजारोहण करना शेष है । मानो भोजन और भोग दोनों ही सम्पन्न हो चुके हैं । अब तो बस, पाचन की जरूरत है। गीता-प्रवचनमाला के अन्तर्गत हमने गीता का बड़ा जायका लिया है, बड़ा स्वाद चखा है । गीता के एक-एक चरण को भगवान के श्रीचरणों का चरणामृत समझकर हमने बड़ी श्रद्धा और आस्था के साथ इसे स्वीकार किया है, आचमन किया है । इससे हमें उतना ही सूख और सुकून मिला है, जितना कि किसी सागर में भटके हुए नाविक को किनारा मिलने पर होता है । जैसे मरुभूमि में कोई उद्यान लहलहा उठे, तो वह मरुभूमि, मरुभूमि नहीं बचती, ऐसा ही गीता को अपने जीवन में जीने से जीवन का रेगिस्तान भी नखलिस्तान में तब्दील हो जाता है। जैसे किसी आदमी को प्यास हो और उसे पानी की जगह अमृत पीने को मिल जाये, तो उसकी तप्ति की कोई सीमा नहीं रहती। ऐसे ही गीता के ये सत्रह दिन, ये सत्रह संबोधन हम सब लोगों के लिए अमृत बोध और अमृत पान का निमित्त 210 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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