Book Title: Jago Mere Parth
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 218
________________ तो पूरा-का-पूरा त्याग कैसे करोगे? महावीर ने जब संन्यास लिया, तो कहते हैं कि उन्होंने पूरे एक वर्ष तक दान दिया जिसकी जो इच्छा हो, आए और मांगकर ले जाये । कर्ण जब महाभारत का युद्ध लड़ रहा था, तो इन्द्र उसके पास पहुँचता है और उससे उसके कुंडल और कवच मांगता है । कर्ण जानता है कि यह मुझसे मेरा जीवन मांग रहा है, फिर भी वह इंद्र को इंकार नहीं करता । हम भी अपने जीवन का ऐसा उसूल बनायें कि अपने द्वार पर आये किसी याचक को खाली हाथ न लौटना पड़े। हमारी शक्ति दो की है, तो दो देंगे, सौ की है तो सौ देंगे, मगर खाली नहीं लौटाएंगे। तुम अगर किसी जरूरतमंद को कुछ देते हो, तो प्रभु तुम्हें छप्पर फाड़कर देगा। यदि ऐसा नहीं करते हो, तो यह जो छप्पर है, वह भी उड़ जायेगा । तुम्हारे पास अकूत धनराशि है, तो इसमें गुमान कैसा? सभी इसी माटी से जन्मे हैं, इसी में समा जायेंगे। पीछे केवल माटी ही रह जायेगी। नौका में अगर पानी भर रहा है तो उसे उचीलो, बाहर निकालो । जहाँ से लिया है, वहीं लौटाओ। तुम्हारे प्रबल पुण्यों के प्रताप से धन मिल रहा है, तो उसे औरों में बांट दो। अपने पुण्यों को बांटो, दान करो। जो लोग भविष्य के लिए बचाकर रखते हैं, वे कितना ही ऐसा कर लें, मगर सड़क पर आते देर नहीं लगती। मैंने रोड़पति को करोड़पति होते देखा है और करोड़पति को रोड़पति होते देखा है। इसमें कोई वक्त नहीं लगता। वक्त का तकाज़ा है, कब कौन ऊपर चढ़ जाये, कब कौन नीचे आ जाये । जब ऊपर हो, तो दोनों हाथों से दो। अगर देना ही आनन्द बन जाये, तो ही देने में सार्थकता है। श्रद्धापूर्वक दान दो, श्रद्धापूर्वक तप तपो और श्रद्धापूर्वक ही यज्ञ करो । यही प्रेरणा श्रीकृष्ण ने गीता के सत्रहवें अध्याय के इस सूत्र में दी है। हम सब लोगों को यह पावन संदेश दिया है कि जीयो श्रद्धापूर्वक, बढ़ो श्रद्धापूर्वक । श्रद्धा स्वयं आगे बढ़ाती है, जीवन का मार्ग खोलती है, और मंजिल प्रदान करती है। आज अपनी ओर से इतना ही निवेदन कर रहा हूँ। नमस्कार। श्रद्धा स्वयं एक मार्ग| 209 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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