Book Title: Jago Mere Parth
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 224
________________ ब्रह्म के साथ, परमात्मा के साथ है । एक अहम् को मिटाना है और दूसरे अहम् को आमंत्रण देना है । ब्रह्म को, परमात्मा को अपना अहम् बना लो और अपने अहम् को परमात्मा के श्रीचरणों में समर्पित कर दो, विकास अपने आप होगा। भगवान अपने आप आपके मन के घर में वास करेंगे, आपके सर्वतोमुखी विकास में सहयोगी बनेंगे । कृष्ण की गीता में यह अपेक्षा दृष्टिगोचर होती है कि व्यक्ति अपने समस्त कर्तव्यों और कर्मों को परमात्मा के श्रीचरणों में समर्पित कर दे । ____एक अहम् को मिटाकर समस्त कर्त्तव्य-कर्मों को परमात्मा के श्रीचरणों में समर्पित करके अनासक्ति के भाव से संसार में जीते रहो, आपके लिए कोई बंधन नहीं होगा। तब हर मार्ग मुक्ति का मार्ग बनेगा। अहम् तुम्हारा स्वरूप नहीं है । यह तो तुम्हारा विकार है, पुरुष और प्रकृति के संयोग से उत्पन्न होने वाला विकार । अगर अहंकार का त्याग करते हो, तो इसका अर्थ यह हुआ कि विकार से ऊपर उठे, निर्विकार हुए, पुरुष और प्रकृति के दोनों के बीच भेद-विज्ञान उत्पन्न हुआ, सीधे परमात्मा के साथ संबंध जुड़ा। परमात्मा हमारा गंतव्य है, सागर हमारा गंतव्य है । हर नदी सागर की तरफ दौड़ रही है, हर दीये की लौ ऊपर की ओर उठ रही है । चेतना का भी ऐसा ही स्वभाव है, आत्मा का भी ऐसा ही स्वरूप है। व्यक्ति अपने साथ जुड़े, अपनी बूंद को सागर में निमज्जित हो जाने दे। ___बूंद चले सागर की ओर । बूंद हो तुम, बूंद है अहंकार । चलना है कर्मयोग और सागर है विराट का प्रतीक । मैंने कहा, बूंद चले सागर की ओर । सच तो यह है कि यह गीता का सार है, संदेश है। गीता के इस अध्याय के दौरान कृष्ण मानवमात्र को एक ऐसा संदेश दे रहे हैं, जिसके द्वारा व्यक्ति एक परम त्याग के पथ पर अग्रसर हो जाये, एक ऐसे मार्ग पर अपने कदम बढ़ा दे जिस मार्ग की मंजिल मनुष्य की पूर्णता हो । कृष्ण कहते सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।। भगवान कहते हैं कि संपूर्ण धर्मों को त्यागकर तू मेरी शरण में आ जा। शोक मत कर, मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। भगवान कृष्ण द्वारा ऐसे परम त्याग की प्रेरणा दी जा रही है, जिस त्याग बूंद चले सागर की ओर | 215 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234