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मैने सुना है : एक फ़कीर महिला, जिसने अपना जीवन ही परमात्मा को समर्पित कर दिया, अपने घर में झाडू निकाल रही थी। उसने घर का कचरा इकट्ठा किया और घर के बाहर पहुँची । उस महिला ने आसमान की ओर देखा, मुस्कुराई
और कहा–'लो भगवान, स्वीकार करो।' उसने वह कचरा आसमान की ओर फेंक दिया। उसके घर आया दूसरा संत चौंका । उस संत ने कहा-मैंने अब तक भगवान के श्रीचरणों में फूलों को चढ़ाते हुए तो देखा है, पर कचरे को चढ़ाते हुए नहीं देखा । फ़कीर महिला ने कहा-भगवान जो कुछ मुझे भेजता है, मैं वही उन्हें चढ़ा देती हूँ। वह अगर मेरे घर फूल भेजता है, तो फूल चढ़ाती हूँ, उसने अगर मेरे घर यह कचरा भेजा है, तो यह भी उसी को समर्पित है।
दूसरे द्वारा भेजे जाने वाले फूल वहाँ तक पहुँचते हैं या नहीं, लेकिन उस कचरे को भगवान ले ही लेते हैं। लोग भले ही इस कचरे को कचरा माने, पर भगवान जानते हैं कि इस कचरे में भी भक्ति की कितनी सुवास है । इस कचरे में भी श्रद्धा और प्रेम की कितनी रोशनी है । इस शरीर को बड़े प्रेम से स्वीकार करो और बड़ी ही निर्लिप्तता से इसे जीते हुए वापस उसे ही चढ़ा दो, उसे ही समर्पित कर दो । रात को सोते हो, तो सोते ही इस काया को भगवान के श्रीचरणों में समर्पित कर दो। अगर भगवान ने जीवन दिया है, तो अगले दिन भी वह संयोग जारी रखेगा और हम निर्लिप्तता से अपनी काया का दिनभर उपयोग करेंगे, रात होते ही फिर वही समर्पण, वही निर्लिप्तता।
चदरिया, झीनी रे झीनी, राम-नाम रस भीनी, चदरिया झीनी रे झीनी । अष्टकमल का चरखा बनाया, पांच तत्त्व की पूनी। नौ-दस मास बुनन को लागे मूरख मैली कीन्ही, चदरिया झीनी रे झीनी। जब मोरी चादर बन घर आई, रंगरेज को दीनी। ऐसा रंग रंगा रंगरेज ने, लालो लाल कर दीनी, चदरिया झीनी रे झीनी ।
154 | जागो मेरे पार्थ
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