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अभ्युत्थान के मार्ग पर बढ़ रहा है, तो तुम देवत्व की ओर बढ़ रहे हो, वहीं अगर चेतना निम्नतम दशाओं को छूने लगे, तो समझो तुम शैतानियत और आसुरी प्रकृति से जुड़े।
जीवन हमें वरदान है, प्रकृति की सौगात है। जीवन पुण्य का प्रसाद है, पुण्य रूप है । पर पुण्य छला गया है । आसुरी सम्पदा ने दैवीय सम्पदा को निगल लिया है । अब पापी हावी है । पुण्य से जो मिला, वह इतना हावी हो गया कि पुण्य स्वयं पाप की प्राचीर बन गया । कोई माघनन्दी भटक ही गया, चिन्मय मृण्मय के भाव बिक गया। सौभाग्य, आज अहसास हुआ
मैं पुण्य रूप था, पाप बना, मेरा जीवन है पंक सना। गढ़नी थी उज्ज्वल मूर्ति एक,
पर में धुंधला इतिहास बना ।। मैं था तो पुण्य स्वरूप ही, मगर जीवन किन अंधे-अभिशप्त गलियारों से गुजर पड़ा कि यह दलदल-सा बन गया है । हमें अपने जीवन की माटी को एक ऐसा रूप देना था कि यह माटी, माटी न रहे, एक दीया बन जाये । यह जीवन एक पत्थर की तरह न रह जाये, वरन् वह पत्थर भी किसी परमात्मा की मूरत बन जाये। यह जीवन कोई पाषाण का अंश न रहे । जीवन हमसे कुछ परिवर्तन चाहता है, परिवर्तन की पुरवाई चाहता है। हमारा जीवन स्वर्ग की प्रतीक्षा में है, पर मनुष्य जीवन को धोखा दे रहा है, जन्नत के नाम पर जहन्नुम को भोग रहा है । यह मनुष्य की दुर्बुद्धि है कि मनुष्य ने जहन्नुम को भी जन्नत समझ लिया है । स्वर्ग मनुष्य के पास है, उसके भीतर है। उस स्वर्ग को जीना आना चाहिये। अगर स्वर्ग को न जी पाये, तो परमात्मा को कैसे जीओगे? मरणोपरांत मिलने वाला स्वर्गीय का अलंकार तो हमारी मज़बूरी होता है। जीते-जी अगर हम स्वर्ग को जीते हैं, तो यह हमारे जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि होगी।
मैने जीवन में स्वर्ग को जाना है, स्वर्ग को जीवन में निरन्तर पल्लवित होते देखा है । भूतकाल क्या था या भविष्य कैसा होगा, उसकी परवाह नहीं है । अगर वर्तमान स्वर्ग है, तो भविष्य स्वर्गमय ही होगा। वर्तमान अगर जहन्नुम है, तो भविष्य जन्नत नहीं हो पायेगा। भविष्य तो वर्तमान का परिणाम होता है । जैसा
1901 जागो मेरे पार्थ
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