________________
युगांतरकारी परिवर्तनों के बावजूद गीता आज भी मनुष्य के कायाकल्प और उसके जीर्णोद्धार के लिए पूरी तरह समर्थ है । प्रत्येक शास्त्र का सम्मान और सार्थकता इसी बात में होती है कि हम उन शास्त्रों को अपने जीवन के साथ कितना जी पाते हैं । इसलिए पहले चरण में तो गीता को अपने में उतारो और जब गीता का आचमन होने लगे, तो तुम स्वयं गीता के मझधार में उतर ही जाओ, पर इसके लिए पहले तो अपने द्वार-दरवाजों को खोलो, ताकि ये भागवत-सूत्र हमारे अंतरंग में प्रवेश कर सकें । जब अंतःकरण में ये क्रान्ति ही मचा दें, रूपांतरण की चेतना के द्वार खोल दें, तो फिर उनमें डूब जाओ, उतर ही जाओ, गहरे पैठ जाओ, उतरने और पैठने से ही गीता पुनर्जीवित होती है । युद्ध के प्रांगण में कही गई यह गीता बार-बार जन्म लेनी चाहिये; एक-एक मनुष्य के अंतःकरण में इसका जन्म होना चाहिये। ___ गीता में बड़ी सुगन्ध है । ऐसी सुवास, जो मनुष्य को मुक्ति प्रदान कर दे; जो मनुष्य को आह्लादित और आनंदित कर दे । सोलहवें अध्याय के रूप में एक नये पड़ाव की स्थापना करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य तो केवल एक अवसर है और मनुष्य उस अवसर का जैसा उपयोग करना चाहे, अवसर वैसा ही परिणाम मनुष्य को दे देता है । अगर जीवन मिला है, तो यह हमारे लिए एक अपूर्व और महान् अवसर है । मनुष्य-जीवन का फूल ऐसे ही नहीं खिलता, इसके लिए तो कई कुर्बानियाँ चुकानी पड़ती हैं । यह फूल ऐसे ही सोये-सोये खोने या मुरझाने के लिए नहीं है । जीवन को विधायक रूप चाहिये।
जीवन तो एक अवसर है । यदि इस अवसर का उपयोग सदाचार और सद्विचारों के प्रर्वतन में करते हो, तो तुम मनुष्य-जीवन में दैवीय गुणों के स्वामी कहलाओगे। अगर तुम दुराचार और दुर्विचारों के संवाहक बनते हो, तो आसुरी प्रकृति के स्वामी हो जाओगे। देवत्व और शैतानियत-दोनों ही मनुष्य के दो विकल्प हैं । खिलावट और गिरावट दोनों का आधार स्वयं मनुष्य है ।
जीवन की खिलावट का नाम देवत्व है और जीवन की गिरावट का नाम शैतानियत है । जब भी अंतःकरण में प्रेम की सुवास उठे, करुणा के निर्झर बहे, शांति की वीणा बजे, तो समझना कि तुम्हारे जीवन में देवत्व की बढ़ोतरी हुई है। इसके विपरीत यदि किसी के प्रति प्रतिस्पर्धा, निंदा या पछाड़ने का भाव जगे, तो समझ लेना शैतानियत अपना बसेरा आपके अन्तर्गृह में कर रही है । जीवन अगर
देवत्व की दिशा में दो कदम | 189
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org