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मछली कांटे में लगे आटे का देखकर खुश होती है । वह उसे झट से लपक लेना चाहती है । वह आटे को अपने मुंह में लेना चाहती है, तभी कांटा उसे बांध डालता है । नरक का यह दरवाजा है ही ऐसा । आटे में लिपटा है कांटा, स्वर्ग में छिपा बैठा है नरक।
मनुष्य काम और क्रोध में उलझा हआ है, चाहे वह तीस वर्ष का हो या साठ वर्ष का हो । मनुष्य का काम जब कुंठित हो जाता है, तो वही काम क्रोध बन जाता है । काम या क्रोध की शक्ति कोई अलग नहीं होती । शक्ति के जन्म में निमित्त प्रभावी होते हैं। कैसे निमित्त मिलता है, सारी बात इस बिन्दु पर निर्भर है। क्रोध के निमित्त मिले तो ऊर्जा क्रोध के रूप में मुखर हो उठेगी । काम के निमित्त मिले, तो वह शक्ति काम में केन्द्रित हो जाएगी । काम और क्रोध की कोई दो अलग-अलग आत्मा नहीं होती । काम और राम की, क्रोध और निरोध की अलग-अलग आत्मा नहीं होती। दोनों एक ही तथ्य के दो पहलू हैं । आत्मा ही स्वर्ग और नरक है । काम-क्रोधजनित आत्मा नरक है, शांति-करुणाजनित आत्मा स्वर्ग है । ऊर्जा को अगर सही-सही रास्ता दे दो, सदाचार और सद्विचार दे दो, तो वही ऊर्जा मनुष्य के देवत्व का कारण बन जाती है, अन्यथा इससे बढ़कर आसुरी प्रवृत्ति को जन्म देने में और कोई सहायक नहीं होता।
दूसरा द्वार है क्रोध । क्रोध जुड़ा है अपेक्षा बनाम उपेक्षा से । जब मनुष्य की अपेक्षाएँ उपेक्षित होंगी, तो मनुष्य क्रोधित हो जायेगा । मनुष्य चाहता है कि उसके मुताबिक उसका परिवार और संसार चले। इस उपक्रम में जैसे ही बाधा आती है, आदमी उत्तेजित और विक्षिप्त हो जाता है। आदमी सोचता है कि यह मेरा संसार, यह मेरा परिवार, यह कौन होता है मेरे सामने बोलने वाला। यह नासमझी है । मैं और मेरे का भाव ही अपेक्षाओं को जन्म देता है । अहम से मुक्त, ममत्व से मुक्त व्यक्ति निरपेक्ष रहता है । महान् आदमी अपने आप से ही अपनी अपेक्षा रखता है, औरों से नहीं।
ज्ञानी की दृष्टि में न कोई माँ है, न कोई पिता है । पिता तो केवल निमित्त बना हमारे शरीर को गढ़ने में, मां केवल निमित्त बन रही है हमारे शरीर को परिपक्व करने में, हमारी काया छूटने के बाद पत्नी ज्यादा-से-ज्यादा घर के दरवाजे तक पहुँचा देती है, हमारी संतान श्मशान तक पहुंचाकर हमें मुखाग्नि दे देती है । बस, फिर वही भूलभुलैया । कौन किसको रखता है । मनुष्य की अपेक्षाएँ जब दूसरों
196 | जागो मेरे पार्थ
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