Book Title: Jago Mere Parth
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 210
________________ श्रद्धा स्वयं एक मार्ग सूत्र है - अश्रद्धाया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् । असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ अर्थात हे पार्थ ! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है, समस्त असत् कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही। भगवान कहते हैं कि बिना श्रद्धा के दिया हुआ दान, किया हुआ यज्ञ और तपा हुआ तप असफल हो जाता है । कृष्ण के संदेशों की मूल आत्मा श्रद्धा है। श्रद्धा जो स्वयं एक मार्ग है । मार्ग ही नहीं, मार्गों का मार्ग है । पड़ावों-का-पड़ाव और मंजिलों-की-मंजिल है। श्रद्धा स्वयं ही मनुष्य को विकास के आयाम देती है, क्योंकि श्रद्धा के हृदय में न केवल गुरु की आँख है, वरन् परमात्मा का प्रसाद भी है । श्रद्धा से स्वीकार किया हुआ ज़हर का प्याला भी मीरा के लिए परमात्मा के चरणामृत का प्याला बन जाता है, श्रद्धा के साथ बजाई गई खड़ताल और छेड़े गये इकतारे की तान भी अंधे सूरदास को वह दिव्य रोशनी दे देती है, जिस रोशनी के माध्यम से व्यक्ति परमात्मा का आत्म-साक्षात्कार करता है । मूल्य श्रद्धा का श्रद्धा स्वयं एक मार्ग | 201 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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