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साकार हो ही गया। यही गीता का सांख्य-दर्शन है।
पुरुष यानी आत्मा तथा प्रकृति यानी शरीर और जब इनका मिलन होता है, तो तीसरा तत्त्व यानी अहंकार पैदा होता है। अहंकार के जन्म लेने से ही बुद्धि जन्म लेती है; बुद्धि से मन पैदा होता है और मन के पैदा होने से पांच महाभूत पैदा होते हैं । पांच महाभूत के जन्म लेने से पांच कर्मेन्द्रियाँ, उनसे पांच ज्ञानेन्द्रियाँ
और फिर उनसे पांच इंद्रियों के विषय सम्बद्ध होते हैं। ये कुल पच्चीस तत्त्व सांख्य दर्शन ने माने हैं। इन सबके रहस्य में कोई छिपा हुआ तत्त्व है, तो वह एकमात्र संयोग ही है।
स्त्री, स्त्री रहे और पुरुष, पुरुष रहे, तो कोई खतरा नहीं । स्त्री और पुरुष एक हुए कि तीसरे का जन्म हुआ। जीवन के निर्माण की यही प्रक्रिया है, यही रीति है। पुरुष के अभाव में प्रकृति और प्रकृति के अभाव में पुरुष अधूरा है। पुरुष
और प्रकृति दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । प्रकृति की आँख पुरुष बनती है और पुरुष का पाँव प्रकृति बनती है। किसी बस्ती में लंगड़ा और अंधा-दो व्यक्ति रहते हैं और अगर उस बस्ती में आग लग जाये, तो उनके अपने बचाव के लिए यह ज़रूरी है कि वे जल्दी-से-जल्दी उस बस्ती को छोड़ दें, लेकिन उनकी शारीरिक अक्षमताओं के कारण यह संभव नहीं है, क्योंकि अंधा चल तो सकता है, लेकिन देख नहीं सकता और लंगड़ा देख तो सकता है, लेकिन चल नहीं सकता । वे आग से बच निकले, इसके लिये यही तरीका होगा कि अंधा अपनी पीठ पर लंगड़े को बिठाए और लंगड़ा अंधे का मार्गदर्शन करते हुए, बस्ती से दूर चले जाएं । जैसे दोनों मिलकर आग से बच निकलते हैं, वैसे ही जीवन का संयोग बनता है और हर प्राणी, हर जीवन का सृजन होता है । संसार बनता है।
संयोग ही वह सृष्टा है, इस सृष्टि का संचालन करता है और इन सबके पीछे जो मूल तत्त्व है, उसे त्रिगण कहते हैं। सारी सृष्टि और संपूर्ण जीवन के ये तीन ही आधार हैं । अगर व्यक्ति इन तीन गुणों से निर्लिप्त हो जाये, गुणातीत हो जाये, तो व्यक्ति जहाँ है, वहाँ वह उसी स्वरूप को उपलब्ध कर लेगा, जो स्वरूप परम पिता परमात्मा का है । अपने ही त्रिगुणों से गुणातीत होना होता है । गुण तीन हैं सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण । सतोगुण दिव्यता है, रजोगुण मानवीयता है और तमोगुण पशुता है; सतोगुण स्वर्ग है, रजोगुण पृथ्वी है और तमोगुण पाताल या नारकी है । सतोगुण एक सहज चक्षुमान प्रवाह है, जबकि तमोगुण भी एक सहज
सतोगुण की सुवास | 167
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