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किया।
मुद्दे की बात यही है कि अगर हमारा अंतःकरण शुद्ध नहीं है, तो एक क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति अपने योग को साध भी बैठा, तो उस योग के द्वारा वह वरदान तो किसी को दे पायेगा या नहीं, लेकिन अभिशाप जरूर देता फिरेगा। वह संत ही क्या, जो अभिशाप दे । सच्चे साध अभिशाप नहीं देते; असाधु ही शाप का भय दिखाते हैं । साधुत्व की कसौटी यही है कि साधु अभिशाप देने से अपने आपको अलग और मुक्त रखे । तुम किसी का भला कर सकते हो, तो करो, कम-से-कम बुरा तो मत करो। भला करना अच्छी बात है, लेकिन बुरा करना यह जीवन में पाप का उदय है, भले ही योग करते फिरो।
कृष्ण यह चुनौती दे रहे हैं कि अन्तःकरण शुद्ध न हआ, तो चाहे जितने यत्न कर लो, मगर फिर भी आत्मा तक नहीं पहंच सकोगे। शद्धि चाहिये अन्तःकरण में । ठीक ऐसे ही जैसे कोई व्यक्ति मंदिर जाना चाहता है और मंदिर जाने से पहले स्नान जरूरी है, ऐसे ही जीवन के सर्वोपरि ज्ञान को उपलब्ध करने के लिए अपने अंतःकरण का स्नान भी जरूरी है। आत्मा कहीं खोई नहीं है और न आत्मा का प्रकाश खोया है । कमी केवल इतनी ही है कि लालटेन को घेरे हए काँच पर कल्मष जम गया है । काँच के गोले को साफ़ करो, अपने आप प्रकाश बाहर तक पहुँचेगा । मन में कचरा भरा पड़ा है, नतीजतन आदमी प्रकाश से वंचित है, इसीलिए कहा है-अन्तःकरण में शुद्धि । ___अन्तःकरण को शुद्ध करने के लिए ध्यान है, योग है । कुछ ऐसे नियम और उपनियम भी आपको सुझा देता हूँ, जो आपकी अन्तःकरण की शुद्धि में मददगार हो सकते हैं। पहला सुझाव तो यह दंगा कि अंतःकरण में जो उधेड़बुन चल रही है, उस पर अपना अंकुश लगाओ; दिन-रात चित्त डोल रहा है, उस पर अपना नियंत्रण लगाओ। अंतःकरण पर अंकुश लगाना ही अंतःकरण के प्रति सजगता है, शुद्धि के लिए पहला सार्थक अभियान है।
हर मनुष्य के भीतर तृष्णा और कामना का उद्वेलन है । कल्पनाओं की उधेड़बन है। सबके मन में संसार-चक्र प्रवर्तित है। हमें संसारचक्र में धर्मचक्र का प्रवर्तन करना होगा। भीतर के तमस से छुटकारा पाना होगा। और इसके लिए जीवन के हर पहलू पर संयम और नियंत्रण होना चाहिये । खाना-पीना,
आत्मज्ञान का रहस्य | 185
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