Book Title: Jago Mere Parth
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 193
________________ हाथ छुड़ाकर जात हो, निर्बल जान के मोहे | हृदय से जब जाओ तो, सबल मैं जानूं तोहे ॥ हृदय से जाना मुश्किल है, वह लीलाधर तो हृदय में रहता है, बाहर भ ही वह अठखेलियाँ करता हुआ नजर आये, पर भीतर से वह कहीं और लुप्त नहीं हो सकता । हृदय में आएं, हृदय में ध्यान धरें, हृदय में रास रचाएं। बगैर हृदय-के सरोवर में डुबकी लगाए आत्मज्ञान का रहस्य हाथ नहीं लग सकता । एक आदमी एक साल में अमीर बन सकता है, लेकिन एक साल की मेहनत से वह विद्वान नहीं बन सकता । विद्वान होने के लिए आदमी को दसों-बीसों साल खपाने पड़ते हैं । इतना समय गुजर जाने पर भी यह जरूरी नहीं है कि आदमी आत्मज्ञानी हो जायेगा । एक आदमी का अमीर होना सरल है, लेकिन विद्वान होना उससे भी कठिन है । विद्वान होना सरल है, मगर आत्मज्ञानी होना उससे भी कठिन है । आत्मज्ञान का मार्ग अपने आपको ही जानने का मार्ग है। यह मार्ग हृदय से प्रारम्भ होता है। आत्मा स्वयं हृदय में स्थित है, इसीलिए मैंने कहा- वहीं पर शुरुआत है, वहीं पर पड़ाव है और वहीं पर मंजिल है । हृदय से ही यात्रा प्रारम्भ होगी, हृदय पर ही समापन होगा । सूत्र कहता है कि केवल चेष्टाओं से, केवल यत्न करने से ही, क्रियाकांड, यज्ञ, दान और तप करने भर से ही कोई आदमी आत्मा को नहीं जान लेता है I अज्ञानी आदमी आत्मा को नहीं जान सकेगा । जिस आदमी का अंतःकरण शुद्ध नहीं हुआ, वह व्यक्ति चाहे जितने प्रयत्न कर ले, लेकिन अपने मूल अस्तित्व और मूल स्रोत तक नहीं पहुंच सकता। सूत्र का दूसरा चरण है कि अंतःकरण शुद्ध करो। बगैर अंतःकरण को शुद्ध किये योग सधता ही नहीं है । मान लो योग सध भी गया, तो उस योग का परिणाम अशुभ ही होगा । योग और ध्यान तो राम का भी सधा और इन्द्रजीत का भी, लेकिन इन्द्रजीत ने अपने योग के परिणाम के रूप में राम-लक्ष्मण की मृत्यु चाही थी। योग और ध्यान तो दुर्वासा ऋषि का भी सधा, लेकिन सिवाय अभिशाप देने के उन्होंने अपने जीवन में कोई काम ही नहीं 1 184 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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