Book Title: Jago Mere Parth
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 184
________________ आत्मज्ञान का रहस्य गीता के पंद्रहवें अध्याय का सूत्र है यतन्तो योगिनश्चैन, पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । यतन्तो ऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥ भगवान कहते हैं-यत्न करने वाले योगीजन अपने हृदय में स्थित आत्मा को तत्त्व से जानते हैं, किन्तु जिन्होंने अपने अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते रहने पर भी आत्मा को नहीं जान पाते। आत्मज्ञान अध्यात्म और मुक्ति का मूलभूत बीज है । आत्मज्ञान ही साधना का प्रारम्भ है, आत्मज्ञान ही मध्य है और आत्मज्ञान की परिपूर्णता में साधना का समापन है । आत्मज्ञान में ही जीवन का संपूर्ण स्वर्ग समाया हुआ है। बगैर आत्मज्ञान के साधना बिल्कुल ऐसे ही है जैसे कोई बंदर इस टहनी से उस टहनी पर और उस डाल से इस डाल पर डोलायमान रहे । आत्मज्ञान से ही अध्यात्म का प्रारम्भ होता है । आत्मज्ञान के मायने हैं अपने आपको जानना, आत्मा को जानना, रूह को जानना । अपने आपको जानना सबसे बड़ा पुण्य है । अपने से अजनबी और अनजान बने रहना आत्मा की दृष्टि से सबसे बड़ा पाप है। सबको जाना, मगर खुद से अनजाने रह गये, तो जानकर भी आप अनजान ही बने रहे। आत्मज्ञान का रहस्य | 175 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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