Book Title: Jago Mere Parth
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 174
________________ कि अगर तूने भाला न उठाया, तो यह पहला पाप होगा। एक हाथ में भाला रहे और दूसरे हाथ में माला । भाला रक्षा के लिए और माला स्वयं के निस्तार के लिए । इसलिए आज स्वतंत्रता-दिवस पर इस राष्ट्र को आज़ादी दिलाने वालों को हम सब अपनी ओर से नमन करते हैं; जिस माटी पर उन्होंने अपना खून बहाया था, उस माटी को अपने शीश पर लगाकर अपने आपको भी धन्य करते हैं। ___ यह वह माटी है, जिसमें हमारे बाप-दादा और पुरखे, तीर्थंकर और अवतार समा गये । यह वह माटी है, जिससे यह माटी, यह देह बनी है । इसलिए हम इस माटी को प्रणाम करके उन अनंत-अनंत आत्माओं को प्रणाम करते हैं, जिन आत्माओं ने अपनी भौतिक देह का त्याग इस माटी पर किया है । यह माटी प्रणम्य है। इस माटी के स्पर्श के लिए तो देवता भी तरसते हैं । इस पृथ्वी-ग्रह की माटी आखिर नसीब होती किनको है। कृतपुण्य लोगों को ही यह माटी मिलती है। भारत की माटी का हर कण हमारे लिए मंदिर के समान आदरणीय है। जब राष्ट्र आज़ाद हुआ, तो कहते हैं कि उससे पहले नेहरूजी और शास्त्रीजी जैसे लोग जेल में बंद थे। आज़ादी के आकांक्षी लोगों को पीड़ा पहँचाने की दृष्टि से जेलर ने रोटियों में मिट्टी मिलवा दी और मिट्टी मिली हुई वे रोटियाँ स्वतंत्रता सेनानियों को खाने को दी गईं । नेहरू ने इस बात की शिकायत की कि तुम्हारी रोटियों में मिट्टी मिली हुई है । जेलर को मौका मिला। उसने कहा-तुम यहाँ अपने देश को आज़ाद कराने के लिए आये हो या रोटियों में मिट्टी की जांच करने? नेहरू ने तपाक से कहा कि हम यहाँ भारत को आज़ाद कराने के लिए आये हैं, भारत माँ के पाँवों में पड़ी बेड़ियों को तोड़ने के लिए आये हैं, भारत माँ को खाने के लिए नहीं। यह माटी हमारे लिए पूज्य है, खाद्य नहीं। देश तो आज़ाद हुआ, लेकिन कृष्ण का कर्मयोग अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। अभी तक तो कृष्ण का कर्मयोग आधा हुआ। आज़ादी का असली युद्ध तो तब शुरू होगा, जब तुम अपने आपको जीतोगे। अपने भीतर में बाहर से आक्रमण करने वाले दुश्मनों को निकाल फैंकोगे, तो समझो गीता का आचमन हुआ; अन्यथा यह आधा-अधूरा युद्ध ही साबित होगा और आधा-अधूरा ज्ञान, आधा-अधूरा सत्य तथा आधी-अधूरी जीत बड़ी खतरनाक होती है। इसकी भयावहता को आज हम देख रहे हैं । हिन्दुस्तान को आज़ाद हुए अर्द्ध-शताब्दी बीत गई लेकिन हम अभी भी भयभीत हैं, आक्रांत हैं । हम यह नहीं कह सकते सतोगुण की सुवास | 165 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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