Book Title: Jago Mere Parth
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 173
________________ भूमिका निभाने की प्रेरणा दी। निश्चय ही कृष्ण परमात्मा के अवतार माने जाते हैं, लेकिन आश्चर्य होता है कि जिस परमात्मा से हम विश्व-शान्ति की प्रार्थना कर रहे हैं, वही परमात्मा अवतार लेकर किसी अर्जुन के रूप में एक मनुष्य को युद्ध की प्रेरणा दे रहे हैं । महाभारत का युद्ध तो मज़बूरी का महात्मा' था। अगर पांच गाँव भी दे दिये जाते, तो युद्ध टल जाता । युद्ध तो तब महाभारतकाल की आवश्यकता एवं अनिवार्यता बन गया, जब पांडवों को रहने के लिए कौरव एक इंच भी जगह देने को तैयार न हुए। इस भारत राष्ट्र में हर किसी को रहने का अधिकार है । राष्ट्र की धरती पर जन्म लेने वाले हर एक को यहाँ रहने का पूरा-पूरा हक है। यह माटी सबके लिए है। यहाँ किसी का एकाधिकार नहीं है। सारा संसार ही एक है। यह तो राजनेताओं की छिछलेदारी के कारण संसार बंट गया, भारत बंट गया। सारा संसार तुम्हारा है । विश्व में शांति और विश्व-बंधुत्व की प्रार्थना, अर्चना और क्रियान्विति होनी चाहिये। घर आया व्यक्ति मेहमान होता है। अगर तुम्हारे दरवाजे पर एक दुश्मन भी आ जाये और रहने के लिए तुमसे शरण मांगे, पेट भरने के लिए भोजन मांगे, तो वह दुश्मन, दुश्मन नहीं होता, शरणागत है । तुम्हारा धर्म होता है, शरणागत को प्रश्रय देना। इस भारत का कलेजा बड़ा विशाल है । यह अपने गृहद्वार पर आये बड़े-से-बड़े दश्मन और विधर्मी को भी शरणागत मानकर उसकी सेवा और व्यवस्था करता है । तकलीफ़ तो तब पैदा होती है, जब मेहमान, मेहमान न बनकर घर का मालिक होने की चेष्टा करता है । मेहमान जब तक मेहमान बना हुआ रहे, उसकी अगवानी की जानी चाहिये, पर मेहमान घर का मालिक होना चाहे, तो धक्के मारकर उसे निकाल देना चाहिये। जितना जल्दी स्वार्थ के शकुनियों को बाहर निकाल पाओ, उतना ही अच्छा। कृष्ण कहते हैं कि अगर तुम्हारे अधिकारों पर कोई भी अपना अधिकार जमाना चाहे, तो चुप न बैठो। अगर कोई भी व्यक्ति तुम्हारी द्रोपद्रियों के साथ चीरहरण करना चाहे, तो तुम्हारा पूरा हक बनता है कि उन हाथों को इतना झुका दो कि वे हाथ कभी उठ न पायें । एक छोटी-सी चींटी को भी कष्ट देना महापाप है, लेकिन अपने समाज, अपने राष्ट्र, अपने धर्म और अपनी आत्मरक्षा के लिए उठाया गया भाला भी तुम्हारे लिए निष्पाप होने का सूत्र बनेगा। कृष्ण कहते हैं 164 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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