Book Title: Jago Mere Parth
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 167
________________ तृष्णा, इच्छा, सुख-दुःख की संवेदना, चेतना का पिंड ये सब क्षेत्र के विकार हैं । कृष्ण चाहते हैं कि व्यक्ति निर्विकार बने । इसलिए तपस्या का संबंध शरीर से न जोड़ा जाये, वरन् मन में रहने वाली, मन में पलने वाली दुर्वासनाओं, दुर्विकारों से जोड़ो। मन की चंचलता को मनोगुप्ति से नियंत्रित किया जाये । शरीर के धर्मों से गुजरना भी पड़े, तब भी, आत्म-सजगता का प्रकाश हर हाल में साथ हो । अगर चल रहे हो, तो यह बोध रहे कि शरीर चल रहा है, मैं नहीं चल रहा हूँ, मैं तो स्थिर हूँ । I 1 कृष्ण स्थितप्रज्ञ होने की ही प्रेरणा देते हैं । वे हमको स्थिर - बुद्धि की, समत्व-बुद्धि की दृष्टि प्रदान कर रहे हैं। पाँव चल रहे हैं, उन्हें चलता हुआ देखो; मन में अगर दुर्विचार उठ रहे हैं, तो उन दुर्विचारों को उठते हुए देखो । कोई गलत भाव पैदा हो जाये तो उससे पलायन करने की मत सोचो, वरन् उनको देखो, केवल उनसे अलग होकर देखो । तादात्म्य जुड़ा है तो पाप ही होंगे, पर अगर निर्लिप्तता बरकरार है, तो कोई पाप नहीं होगा। तुम जल में कमल के समान हुए। संसार में, फिर भी संसार के न होकर । ऐसा करके तुम संसार में रहकर भी संसारी न हुए, हर हाल में तुम्हारी आत्मा पूजनीय बनी रही । तुम्हारा सौन्दर्य, तुम्हारी सुवास सुरक्षित रही । व के आन्तरिक सौन्दर्य को देखो । केवल बाह्य सौन्दर्य को ही सौन्दर्य मत समझो। जो लोग अपने भीतर के सौन्दर्य, भीतर के शिवत्व, भीतर के सत्य को न पूज पाये, वे ही लोग लिपिस्टिक पाउडर के रूप में कृत्रिमता को मुंह पर लगाते हैं । अपने मेक-अप भरे चेहरे के पार देखो, तो ही तुम्हें सौन्दर्य की असली पहचान होगी । जब तक व्यक्ति भीतर के सौन्दर्य को नहीं पहचानता, तब तक उसके लिए शरीर का सौन्दर्य ही सौन्दर्य होता है। जब व्यक्ति भीतर के सत्य और सौन्दर्य को पहचानता है, तो बाहर का सौन्दर्य उसके लिए गौण हो जाता है, नगण्य हो जाता है, इसीलिए मैंने पहला सूत्र दिया कि शरीर को शरीर जितना मूल्य दो और आत्मा को आत्मा जितना । दूसरा सूत्र मैं उन लोगों के लिए देना चाहूँगा, जो लोग शरीर से ज्यादा मूल्य आत्मा को देना चाहते हैं, जिन्होंने शरीर से अपने को अलग देखा है, शरीर के भाव को अपने से अलग देखा है। उनके लिए मैं यह बात कहना चाहूंगा कि शरीर को बिल्कुल ही मूल्य मत दो, सारा मूल्य आत्मा पर केन्द्रित करो । यह I 158 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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