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इसका पहला अक्षर अ है और व्यंजन-विभाग का अंतिम अक्षर-म है। जब हम 'अ' से 'म' तक पहुँचते हैं, तो सारा स्वर-तंत्र और सारा व्यंजन-तंत्र ही इसमें समाविष्ट हो जाता है।
__ भाषा में ॐ है । बगैर इसके कोई भी भाषा जीवित नहीं हो सकती। ॐ में तीन अक्षर हैं-A, U और M. क्या बगैर A के अंग्रेजी पैदा हो सकती है? इसलिए A तो प्राण है, उसी तरह जिस तरह शरीर का प्राण आत्मा होती है। कहा तो यह भी जाता है कि हिन्दू धर्म के आराध्य-तत्त्व-ब्रह्मा, विष्णु और महेश अ, उ और म ही हैं। अगर कोई व्यक्ति अ, उ और म का समन्वित अनुष्ठान करता है, तो वह इस बीज-मंत्र के द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और महेश के संपूर्ण गुणों और उसके स्वरूप का चिन्तन, मनन और अनुष्ठान का लाभ अर्जित कर लेता है । इसलिए ॐ हिन्दुत्व का प्राण है।
जैनत्व की परिभाषा कहती है कि जैन धर्म का सार या उसका आराधना केन्द्र पंच-परमेष्टि है अर्थात अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । जब महावीर से पूछा जाये कि भंते, हमारे पास इतना समय नहीं है कि हम अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु का क्रमबद्ध स्मरण कर सकें । क्या आप सार में कुछ समझायेंगे? तो महावीर कहेंगे-हां, तुम इन सबका प्रथम वर्ण लेकर भजो-असिआउसा। भगवान से पूछा जाये कि भंते, हम इसको भी सार रूप में, बीज रूप में कहना चाहें तो? तो महावीर कहेंगे कि ॐ ही पंच-परमेष्टि का सार
भले ही इस्लाम अपने आपको ॐ से न जोड़े, पर मैं नहीं मानता कि वह इस बीज-मंत्र से मुक्त है। मेरी नज़र से इस्लाम बचेगा ही कहाँ, अगर उसकी सारी परम्पराओं से ॐ को हटा दिया जाये, क्योंकि ॐ का 'अ' अल्लाह का वाचक है, तो इसका ‘म' मुहम्मद का परिचायक है । अल्लाह से लेकर मुहम्मद तक की पैगम्बर परम्परा में ॐ आकर समाविष्ट हो जाता है । जैन धर्म भी इससे अछूता कहाँ है । ॐ का 'अ' जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का और इसका 'म' अन्तिम तीर्थंकर महावीर का द्योतक है। इसलिए ॐ को हर धर्म के लिए बीज-मंत्र मानें, हर धर्म का सार माने, अध्यात्म के अनुष्ठान का अमृत-पद स्वीकारें । यही ॐ की ‘एनाटॉमी' है।
ॐ मंत्रों की आत्मा। 93
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