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हों निर्लिप्त, ज्यों आकाश
हमारा जीवन हमारे लिए जितना प्रकट है, उतना ही अप्रकट भी है, जितना दृश्य है, उतना ही अदृश्य है, जितना ज्ञात है, उतना ही अज्ञात है । जो प्रकट है, वह तो जीवन का दसवां हिस्सा ही है, शेष तो अप्रकट है । जितना दृश्य है, वह तो केवल सागर में गिरी हुई बर्फ के शिलाखंड की तरह है, ऊपर तो केवल थोड़ा-सा हिस्सा दिखाई देता है और जितना भीतर है, वह बाहर के हिस्से से बहुत ज्यादा है । जितना हमें ज्ञात हुआ है, वह ज्ञात तो अत्यन्त न्यून है, पर जो अज्ञात है, उसकी थाह पाना कठिन है । जो प्रकट है वह स्थूल है, जो अप्रकट है वह सूक्ष्म है। प्रकट अप्रकट की अभिव्यक्ति है; जो अप्रकट है, वह प्रकट का छिपा हुआ रूल्प है।
जीवन के नाम पर मनुष्य के हाथ में केवल कागज़ के फूल ही लगे हैं। अपने फूल तो उसके हाथ तब तक नहीं लग सकते, जब तक वह स्वयं ही फूल की तरह खिल नहीं जाता है । फूलों का सान्निध्य पाने के लिए जरूरी है कि व्यक्ति स्वयं भी फूलों की तरह प्रफुल्लित और प्रमुदित हो जाये । मेरे हाथ में किसी व्यक्ति ने कागज़ के फूल सौंपे। मैंने उन फूलों को देखा, लेकिन मुझे सिवाय दृश्य के उसमें कुछ भी दिखाई नहीं दिया। तभी मेरी नज़र मेरे पास में पड़े हुए एक गमले पर गई । उसमें वैसे ही गुलाब के फूल खिले हुए थे। फ़र्क सिर्फ इतना
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