Book Title: Jago Mere Parth
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 158
________________ होता है, वरन् वह मन का ही प्रतिबिंब होता है । मन को पहचानने के लिए वह सपना बड़ा मददगार हो सकता है, इसलिए दो मार्ग मैंने आपको बताए हैं । मन की निर्मलता को जीवन की निर्मलता समझो। मन के द्वारा अगर पाप हो रहा है, तो समझो पाप जारी है। शरीर के द्वारा, व्यवहार के द्वारा जगत में हम पाप नहीं करते, मगर मन दिन-रात पाप करने में लगा हुआ है । उसकी निर्मलता और उसकी पावनता के लिए ही पहला सूत्र दूंगा कि अपने मन का उद्देश्य बदलो, अपने जीवन का जो ध्येय है, यह पहचानो कि ध्येय कितना सार्थक है और कितना व्यर्थ है । असार्थक उद्देश्यों को निकाल फेंको। यह मन की बैठक बदलने के लिए सबसे अच्छा सूत्र होगा। अपने ध्येय के प्रति पूरी तरह श्रद्धान्वित बनो । दूसरा सूत्र यह दूंगा कि मन में जो भी भाव उपजते हैं, उनको करने से पहले उनके प्रति यम-नियम-संयम को आचरण में ले आओ। जीवन में संतुलितता, एक नियमितता, एक परिमितता होनी चाहिये । न फ़ालतू का बोलो, न फालतू का खाओ । ऐसा नहीं कि सदोष वस्तुओं को ज्यादा मत खाओ, वरन् निर्दोष वस्तुओं को भी ज्यादा मत खाओ। जितनी जरूरत हो उतना ही करो, चाहे वह व्यवसाय हो या काम हो । न ज़रूरत से ज्यादा सोओ और न ज़रूरत से ज्यादा जागो । बोलो, लेकिन इस तरह कि तुम्हारा बोलना भी उपहार देना हो जाए । बोलो, लेकिन बड़े प्यार से, बड़े माधुर्य के साथ बोलो। बोलना भी अहिंसा का एक आचरण बन जाये, बोलना भी परमात्मा के चरणों की सेवा बन जाये। बोलो ऐसे कि जैसे टेलीग्राम दे रहे हो, बड़े नपे-तुले शब्दों में । यह एक संयम की बात है । परिमितता लाने की बात है 1 तीसरा और अन्तिम सूत्र यह दूंगा कि सबके प्रति एक उदार दृष्टि लाओ, एक समदृष्टि, एक समरसता लाओ। एक ऐसी उदार दृष्टि कि सबमें गुण ही गुण दिखाई दें। दृष्टि में एक मांगल्य-भाव चाहिये, एक ऐसी मंगल मैत्री चाहिये कि हम जिसके साथ भी आयें-जायें, उठे-बैठें, हमारा उठना-बैठना भी परमात्मा के मन्दिर की परिक्रमा हो जाये और हमारा खाना-पीना भी भगवान को भोग चढ़ाना हो जाये 1 कृष्ण कहते हैं कि मन को एकाग्र करके मेरे भजन - ध्यान में लगे हुए योगीजन, भक्तजन मुझे प्रिय हैं। भक्त को भगवान प्रिय होते हैं और भगवान Jain Education International For Personal & Private Use Only मन में, मन के पार 149 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234