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वे दुष्टों का संहार करना चाहते हैं, अधर्म और अनैतिकता को उखाड़ फेंकना चाहते हैं, उसे तो अपना वो विराट रूप दिखाना ही होगा। शायद अर्जुन से पहले किसी और को यह सौभाग्य नहीं मिला होगा कि भगवान का सम्पूर्ण भगवत स्वरूप प्रत्यक्ष देखने को मिले । शायद अर्जुन के बाद भी किसी को यह सौभाग्य न मिला होगा । अगर मिला ही होगा, तो वह आंशिक स्वरूप ही होगा ।
अर्जुन ने देख ही लिया वह विशद् स्वरूप जिसमें सारा रूप समाविष्ट था; जिससे कि सारा अस्तित्व एक पर्याय बन चुका था; वह स्वरूप जिसमें परमात्मा और परमात्मा की संपूर्ण रासलीला भी समाई हुई थी । अर्जुन ने जान ही लिया कि भगवान के एक ओर से सारे राक्षस निकल रहे हैं और दूसरी ओर से देवगण उनके मुंह से टपक रहे हैं । कहीं से जन्म, कहीं से प्रलय, कहीं प्रभव, कहीं पर भूतों के आदिस्वरूप बन रहे हैं, कहीं मध्य, कहीं अंत। पंचभूत उन्हीं से निष्पन्न हो रहे हैं ।
भगवान शब्द भी भूतों से ही बना है। 'भगवान' शब्द की व्युत्पत्ति पर शायद पंडितों का ध्यान नहीं गया होगा, क्योंकि भूतों का अगर सार ढूंढना हो, तो वह इस शब्द में मिल जायेगा। तुलसी कहते हैं 'क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंचभूत रचित अधम शरीरा ।'
पांच तत्त्वों के संयोग से जीवन बना है, जगत बना है। एक 'भगवान' शब्द में पांचों ही भूत समाये हुए हैं। भगवान का 'भ' भूमि का वाचक है, 'ग' गगन का परिचायक है, 'वा' वायु का संवाहक है, 'न' नीर का प्रतीक है और 'हलन्त' अग्नि का परिचायक है । पांच भूतों का पिंडस्वरूप ही भगवान है। जब भगवान का यह विशद् और विराट रूप देखने को मिलता है, तो अर्जुन ठगा-सा रह जाता है । उसकी आँखें चौंधिया जाती हैं। आसमान में हज़ारों-हज़ार सूर्यों से भी ज्यादा प्रकाश अभिमंडित हो चुका था । पुष्टि-स्वरूप गीता भी कहती है कि हज़ारों-हज़ार सूर्यों से भी ज्यादा प्रकाशमान वह भगवत स्वरूप था । नानक- कबीर को पढ़ो तो वे भी यही कहते हैं कि तुम्हारे भीतर भी ऐसे ही अनेकानेक सूर्यों जैसा ही प्रकाश समाया हुआ है
भगवान का भगवत स्वरूप अब तक जिसको भी दिखा, अपने भीतर ही दिखा, लेकिन अर्जुन वह विरला हुआ, जिसने प्रकट में भी संपूर्ण विश्व - रूप देखा। लोगों को देखो । वे सोचते हैं कि अगर राम तक पहुंचना है, तो पहले
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130 | जागो मेरे पार्थ
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