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रहा है । मार्ग अलग-अलग, घाट अलग-अलग, मगर पहुँचना सबको एक जगह ही है । मंजिल एक है, मंजिलों में कोई फ़र्क नहीं, शिखरों में कोई भेद नहीं । तुम पश्चिम से पहुँचो या पूर्व से, उत्तर से पहुँचो या दक्षिण से, इसके लिये स्वतंत्र हो । जो मार्ग रुच जाये उसे ही स्वीकार कर लेना, बस ध्यान इतना ही रखना कि कहीं घाटों को मूल्य न मिल जाये, कहीं मंजिल गौण न हो जाये।
तुम जैसे-जैसे आगे बढ़ोगे, प्रकाश तुम्हारा सहचर बनकर साथ आता जायेगा। एक आदमी को शिखर तक पहुंचना था। उसने सोचा गर्मी की ऋतु है, इसलिए सुबह-सुबह रवाना हो जाऊं, ठंडक में पहुँच जाऊँगा, वह अलसुबह ही रवाना हो गया । पर्वत की तलहटी तक तो प्रकाश की व्यवस्था थी, सो वहाँ तक भय नहीं था, लेकिन जैसे ही तलहटी के पास पहुँचा और पहाड़ की तरफ नज़र डाली, तो पूरा पहाड़ ही अंधकार में घिरा पाया। वह आदमी घबरा गया और कंदील को एक तरफ़ रखकर वहीं बैठ गया। उसकी हिम्मत ही नहीं हुई कि वह आगे जाये। आगे तो अंधकार ही अंधकार था।
__ संयोग से मेरा भी उस रास्ते से गुजरना हुआ। मैंने देखा कि वह युवक प्रमादवश, भयवश वहां बैठा है । मैंने उससे पूछा, तो उसने कहा कि 'वह शिखर पर जाना चाहता है, पर अंधेरे से डर लगता है। मैंने कहा-कैसा डर ! तुम्हारे पास तो कंदील भी है। उसने कहा कि कंदील का प्रकाश तो पच्चीस फीट तक जाता है । पहाड़ इतना लम्बा चौड़ा है । मैं वहाँ पहुँचूंगा कैसे? इतना विस्तृत अंधकार । मैंने कहा 'बुद्धू, तू चल तो सही । जैसे-जैसे तू आगे बढ़ेगा यह प्रकाश भी तेरे साथ बढ़ता जायेगा। अगर ऐसे ही बैठे रहा, तो कुछ भी न मिलेगा।
तुम चलो, प्रकाश अपने आप तुम्हारा साथ निभायेगा। जिस मार्ग की ओर तुमने कदम बढ़ाये हैं, उससे डगमगाओ मत । मैं यह नहीं कहूंगा कि अमुक धर्म को छोड़ो या अमुक धर्म को स्वीकारो। मैं तो यही कहूंगा की तुम जिस धर्म के अनुयायी हो, उसी धर्म की अनंत गहराइयों में डूबो । यह डूबना ही पहुँचाएगा, बैठना नहीं पहँचाता। महावीर कहते हैं-उठ्ठिए नो पमायए। अर्थात जिस कर्त्तव्य-मार्ग पर तुमने कदम बढ़ा दिये हैं, वहाँ फिर प्रमाद मत करो। विचलन की काई तो आयेगी, मगर तुम न डिगो । कभी देखो कि एक मुसलमान अपनी इबादत के प्रति कितना चुस्त है । हम तो सोच लेंगे कि सुबह पूजा-पाठ नहीं की, तो दोपहर में कर लेंगे, दोपहर में न की तो शाम को कर लेंगे और अगर शाम को
144 | जागो मेरे पार्थ
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