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तो वह मार्ग फल प्रदान करेगा, हमें मंजिल के करीब ले जायेगा। ये बातें मैं सिर्फ़ इसलिए कह रहा हूँ कि हमारे अन्तर्मन में धर्म का जो मार्ग है, जो धार्मिकता है, उसके प्रति हमारी पूरी आस्था, श्रद्धा और निष्ठा पैदा हो, ताकि हम सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते, हर समय अपने लक्ष्य को अपने मन में, हृदय में रखें। ऐसा करने के लिए ही भगवान कहते हैं
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्त उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ।। भगवान कहते हैं-मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रद्धा से मुझ परमात्मा को भजते हैं, वे योगियों में भी उत्तम योगी हैं और वे मुझे बहुत प्रिय हैं।
कृष्ण के लिए भक्त भी योगी है। यह गीता का बड़ा कीमिया सूत्र है जो योग और भक्ति के बीच समन्वय स्थापित करता है । सूत्र का पहला चरण योग की बात करता है और दूसरा चरण भक्ति की, श्रद्धा की । भक्ति हो मगर मनोयोग पूर्वक । चंचल मन से भक्ति कैसे करोगे। भजन कैसे गाओगे। हाथों में बजे खड़ताल, कंठ में हो भगवद् नाम, पर मन भगवान की बजाय भागवान को याद करे !
इसीलिए कृष्ण सर्वप्रथम मन की एकाग्रता पर जोर देते हैं। अगर व्यक्ति का मन ही तन्मय नहीं है, एकाग्र नहीं है, तो शरीर की सारी गतिविधियाँ तो प्रभावित होंगी ही। अगर मन साफ़-सुथरा है, तो आँखें भी साफ़-सथरे रूप को देखेंगी। मन अगर विकृत है, तो ये आँखें भी विकृत चीजों को ही देखेंगी। मन अगर निर्मल है, तो कान भी सही शब्दों को सुनेंगे । मन अगर समत्व-योग में स्थित है, तो भोजन चाहे जैसा आ जाये, वह बड़े प्रेम से स्वीकार करेगा। मन अगर शांत
और सौम्य नहीं है, तो सारी गतिविधियाँ बिगड़ी हुई होंगी। सब कुछ आखिर मन पर ही तो आकर केन्द्रित होता है।
मन के बहकावे में अगर रहे, तो मन कभी भी आपको शांति नहीं दे पायेगा। मन ख्वाब तो जन्नत के दिखायेगा, लेकिन धकेलेगा जहन्नुम में । जो लोग भक्ति की धार में बहना चाहते हैं, उनके लिए पहली नसीहत यही है कि वे अपने मन की बैठक को बदलें । अगर कोई व्यक्ति घर में आता है, तो हम उसे बैठने को
146 | जागो मेरे पार्थ
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