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का सरगम है, जिनकी सांसों में ॐ की सुवास है । ॐ से हटकर न तो इस सृष्टि का अस्तित्व है, न सारे 'धर्मों' का अस्तित्व ही शेष रहता है। आखिर कोई भी 'धर्म' तो ऐसा नहीं है, जो अपने आपको ॐ से अलग कर सके। अगर धर्म ने अपने को ॐ से अलग कर लिया, तो धर्म की आत्मा ही मर गई; अगर अध्यात्म
स्वयं को धर्म से विच्छिन्न कर लिया, तो अध्यात्म के प्राण वैसे ही तड़फने लगेंगे, जैसे कि बगैर पानी की मछली तड़फा करती है । ॐ ही सृष्टि का प्राण है । ॐ तो अध्यात्म की आत्मा है ।
ॐ ही अध्यात्म का आदि है, ॐ ही मध्य है और यहीं अध्यात्म का अंत है । ॐ से धर्म और अध्यात्म की यात्रा प्रारम्भ होती है । ॐ मय होकर अध्यात्म की यात्रा आगे बढ़ती है और जब हमारी चेतना स्वयं ॐ मय हो जाती है, तो वहीं अध्यात्म का उपसंहार हो जाता है, वहीं अध्यात्म की मंजिल उपलब्ध हो जाती है । इसलिए ॐ तो हमारा प्राण है, हमारी शक्ति, हमारा मंत्र है। दुनिया के हर धर्म के मंत्रों को लेकर वाद-विवाद हो सकते हैं, लेकिन ॐ को तो हर धर्म ने ईमानदारी के साथ स्वीकार किया है ।
चाहे गायत्री मंत्र लें, या सूर्य की उपासना करें, ॐ तो आयेगा । चाहे तो णमो अरिहंताणम् कहना हो, ॐ णमो अरिहंताणम् आयेगा, सारा जैनत्व ॐ में आकर समाविष्ट हो जायेगा । यदि हम बौद्ध धर्म तक पहुंचें, तो 'ॐ मणि पद्मे हुम्' में ॐ आ गया । सच तो यह है कि हुम् स्वयं ॐ का ही रूप है। यदि हम ठेठ विदेशों तक पहुंचें, तो बौद्धों का मशहूर मंत्र है - ॐ ना मुम्यो हो रिंगे क्यो ।' इसमें भी पहले ॐ आ गया। कोई भी मंत्र, मंत्र तभी बनता है, जब उस मंत्र के साथ ॐ का बीज आ जाता है । ॐ तो स्वयं ही बीज मंत्र है । जैसे व्योम - बीज, वायु-बीज, पृथ्वीबीज गिने जाते हैं, ऐसे ही ॐ स्वयं बीजों का बीज
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अच्छा होगा हम ॐ के, शरीर रचना - विज्ञान को समझें, ॐ की 'एनाटॉमी' को जानें | माना कि ॐ अखंड है। जैसे ब्रह्म अखंड है, ऐसे ही ॐ भी अखंड है, उसको खंड-खंड नहीं किया जा सकता। फिर भी ॐ का अपना शरीर - विज्ञान है । जब हम ॐ का संधि-विच्छेद करते हैं, तो तीन अक्षर बनते हैं- अ +उ + म । इसका पहला अक्षर है-अ, फिर है- उ और अन्त में है- म । वेदों का प्रारंभ ॐ से ही होता है । संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि भी ॐ से ही शुरू होती है ।
92 | जागो मेरे पार्थ
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