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योगक्षेमं वहाम्यहम्
पूजा
I
देवों की 'करने वाले देवत्व को प्राप्त होते हैं । पितरों की पूजा करने वाले पितरों को, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं । जो भगवद् स्वरूप का भजन-पूजन करते हैं, वे भगवान को, उसकी भगवत्ता को उपलब्ध करते हैं । कृष्ण को न कोई प्रिय है, न अप्रिय, जो उन्हें प्रेम से भजते हैं, वे उनमें हैं। वे कहते हैं वे मुझमें निमग्न हैं और मैं उनमें प्रकट हूँ । परमात्मा को सत्यतः न जानने के करण ही लोग गिरते हैं, भटकते हैं, जीवन-जगत की अंधी गलियों में धक्के खाते
हैं ।
मनुष्य और परमात्मा के बीच आज एक दुराव हुआ है, अलगाव बढ़ा है । हार्दिक श्रद्धा कथरी में ढंक गई है, अर्थ और यश का बोलबाला सबके मुंह पर चढ़ आया है । अहंकार आसमान को छू रहा है ।
जैसे-जैसे मनुष्य अपने पांवों पर खड़ा होना शुरू हुआ है, उसने परमपिता परमेश्वर से अपना नाता भी तोड़ा है। उसने बाहर के प्रकाश की चकाचौंध में भीतर के प्रकाश को भी अस्वीकार किया है । तमस का जैसे-जैसे प्रभाव बढ़ता गया है, प्रकाश की आत्मा स्वतः संकुचित होती हुई दिखाई देने लगी । यदि अंधकार से उभरकर इस सृष्टि में कहीं भी अपनी नजरें दौड़ाओ, तो हर जगह
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योगक्षेमं वहाम्यहम् | 103
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