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ने कोशिश की परिपूरक माताओं की । उसने बताया कि यदि बच्चे का पहला अनुभव उसकी माता नहीं है, उसकी पहली आदत उसकी माँ नहीं है, तो उसकी माँ बाद में उसके पास हो तो उसकी आदत नहीं बनती। इसलिए जिस अनुभव को छोड़ना हो उससे न गुजरना ही ठीक है, लेकिन जिसे जीवन में जीना है, अनुभव करना है, उससे गुजरना ही बेहतर है। इसलिए गृहस्थ और साधुत्व दोनों के अनुभव में उतरना जरूरी है तभी समझ में आयेगा-मोक्ष का अर्थ है जहाँ शुद्ध है चेतना, शरीर से मुक्त।
आदमी संसार में रहे । संसार में रहना बुरा नहीं है । संसार में रचना-बसना बुरा है । न तो संन्यास बुरा है, न गृहस्थ ही बुरा है । क्या अच्छा है और क्या बुरा है, इसके मापदंड अलग हैं। अगर आत्मरमण के भाव बने हुए हैं, तो व्यक्ति पतलून में अपनी मुक्ति का इंतजाम कर सकता है, बड़े आराम से, बड़ी सहजता से । नहीं तो चाहे जितने जटाजूट बढ़ा लो, भीतर के तमस की मृत्यु हुए बगैर धर्म जीवित नहीं हो सकता । चाहे कर्म-संन्यास हो या कर्मयोग-दोनों ही कल्याणकर हैं, स्वस्तिकर हैं । पर जो कर्मयोगी 'न काहू से दोस्ती न काहू से वैर' के सिद्धान्त पर चलता है, वह फिर चाहे गृहस्थ ही क्यों न हो, संन्यासी ही है। गीता कहती है कि राग-द्वेष जैसे द्वंन्द्वों से मुक्त आदमी संसार-बन्धन से मुक्त हो ही जाता है। योग चाहे ज्ञानयोग हो या कर्मयोग, रास्ते भले ही भिन्न लगते हों, पर मंजिल पर सारे रास्ते एक हो जाते हैं । मंजिल तक पहुँचना है, फिर चाहे वह किसी भी रास्ते से पहुँच जायें । यह तो तुम अपने आपको पड़तालो कि तुम्हें कौन-सा मार्ग ज्यादा माफिक खाता है । जो मार्ग अनुकूल लगे चरैवेति-चरैवेति, उसी पर चल पड़ो। उसी को आत्मसात् कर लो । बस, हमारी चेतना सदा हमारे साथ रहे, इसमें चूक नहीं होनी चाहिये।
गृहस्थ का मार्ग सरल है, संन्यास दुरूह है । हर किसी को न तो संन्यासी होने की प्रेरणा दी जानी चाहिये और न ही हर कोई बन भी सकता है। संन्यास को उसकी अखंडता से निभाना कठिन है । तुम गृहस्थ में भी अपनी मुक्ति के सूत्र तलाश सकते हो, कीचड़ में भी कमल खिला सकते हो। आखिर हमने कैक्टस में भी फूलों को खिलते हुए देखा है। महावीर कहते हैं मुनि तो सिद्ध होते ही हैं, गृहस्थ भी हो सकते हैं । महावीर ने सिद्धों के भेद किये हैं-मुनिलिंग सिद्ध, गृहीलिंग सिद्ध, अन्यलिंग सिद्ध । सिद्धत्व की सुवास सबके लिए है । बस,
56 | जागो मेरे पार्थ
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