Book Title: Gunsthan Kramaroh
Author(s): Tilakvijaymuni
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 10
________________ प्रस्तावना. कर्माशसे आत्मा मुक्त होती जाती है, उतने उतने अंशमें आत्माको गुण प्राप्त होता जाता है। वीतरागके दर्शनमें चतुर्दश ही गुणस्थान कहे गये हैं। कर्मकी एकसौ अड़तालीस या एकसौ अठावन प्रकृति उत्तरोत्तर चतुर्दश गुण प्राप्त होते तकमें आत्मासे छुट जाती हैं। तदनन्तर आत्मा पूर्ण स्वतंत्रताको धारण करती हुई समग्र निज ज्ञानादि गुणोंको प्रकाशित करती है। प्रस्तुत ग्रन्थमें इस बातका सविस्तर वर्णन किया गया है। मूल ग्रन्थकार रत्नशेखर सूरीश्वरजी हैं। अनुवादमें प्रासंगिक बातोंका विवेचनपूर्वक स्पष्ट उल्लेख किया है। यद्यपि यह ग्रन्थ सटीक मुंद्रित होकर प्रकाशित हो चुका है, और संस्कृतज्ञोंने गुणस्थान तथा उसका क्रमसे आरोहण किस प्रकार होता है, भलीभांति बुद्धिग्रस्त किया है । तथापि संस्कृत भाषासें अनभिज्ञ जनोंको सूरीश्वरजीकी कृति अकिंचित्कर समझकर मूलके भावकी रक्षापूर्वक इस ग्रन्थानुवादमें प्रयास किया गया है । इस ग्रन्थका शब्दार्थ मात्र अनुवाद बनारस निवासी सितारेहिन्द राजाशिवप्रसादजीकी भगिनी श्रीमति गोमति बाईने स्वयं करके मुद्रित करवा कर प्रकाशित किया था और वह अनुवाद हिन्दी भाषा भाषिओंने पढ़कर कुछ लाभ भी उठाया है। परंतु शिर्फ शब्दका अर्थ मात्र ही होनेसे चाहिए वैसा स्पष्ट बोधका अभाव देख कर मूलमें आई हुई प्रासंगिक बातोंका विशेष खुलासापूर्वक और उसके स्वरूपका बृहत् रूप बनाकर यह अनुवाद किया गया है। यद्यपि आत्मस्वरूप तथा कर्मके भङ्ग जालका याथातथ्य वर्णन करना विना अनुभव ज्ञानके हो नहीं सकता है, तथापि इस ग्रन्थानुवाद रूप शुभ कार्यमें 'शुभे यथाशक्ति यतनीयं' यह महान पुरुषोंके वाक्यका केवल पालन ही किया है। ___ आत्मा तथा कर्मकी विचित्र घटमालके कथक सहस्रावधि ग्रन्थोंको अवलोकन करनेवाला व्यक्ति सर्वज्ञोक्तिकी तुलना नहीं

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