Book Title: Gunsthan Kramaroh
Author(s): Tilakvijaymuni
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 8
________________ प्रस्तावना. अहम. शांतो दांतः सदा गुप्तो, मोक्षार्थी विश्व वत्सलः । निर्दभां यां क्रियां कुर्यात् , साध्यात्म गुण वृद्धये ॥ (श्रीमान् यशोविजयजी.) विदित हो कि वीतरागके दर्शनमें बद्ध और मुक्त भेदसें आत्मा दो प्रकारकी होती है। वीतराग सदृश आत्माको मुक्तात्मा कहते हैं और राग द्वेषयुक्त आत्माको बद्ध आत्मा कहते हैं। सदृश गुण-धर्मको धारण करनेवाली आत्मामें यह भेद कबसे और क्यों पड़ा है ? इस प्रश्न उत्तरमें श्रीसर्वज्ञदेवने निज आगममें स्पष्ट दर्शाया है कि, ऐसा कोईभी समय देखनेमें नहीं आया है कि जिस समयमें आत्माके भेदका नास्तित्त्व हो और अभेदका अस्तित्त्व हो । आत्माकी भेदक कर्मरूप उपाधि अनादिकालसे ही विद्यमान हैं, इस लिये समान गुण-धर्मके धारक नाना आत्मा ओमें भी बद्धात्मा और मुक्तात्माका व्यवहार आधुनिक नहीं परंतु अनादिकालका ही है। जिसको कर्म कहते हैं, वह रूपी और जडत्वादि गुणका धारक है। और जिसको आत्मा कहते हैं वह अरूपी तथा ज्ञानादि गुणकी धारक है । कर्म सर्वथा भिन्न धर्मका धारक होते हुए भी आत्माके साथ मिला हुआ आत्माकी भांति दीखता है । स्थूल बुद्धिवालेको कर्म प्रपंचके विना आत्माके वास्तविक स्वरूपका बोध बुद्धिग्रस्त नहीं होता है । कितनेक बाल जीव तो दृश्य शरीरको ही आत्मा मानते हैं। चार्वाककी मति भी अभिन्नाभास कर्मके प्रपंचमें कुंठित हो गई है। यह भी इंद्रियग्राद्य पदार्थों को छोड़कर

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