Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० कर्मकाण्डे
सत्ताधुवावि यतित्थाहाराउगा निरंतरगा । णिरयदुजाइचउक्कं संहदिसंठाण पण पणगं ॥ ४०४॥
सप्तचत्वारिंशदध्रुवा अपि च तीर्त्याहारायूंषि निरंतराणि । नरकद्विकजातिचतुष्कं संहननसंस्थानपंचकं ॥
६५२
दुग्गमणादावदुगं थावर दसगं असादसंडित्थी । अरदीसोगं चेदे सांतरगा होंति चोत्तीसा ||४०५ ||
दुर्गमनातापद्विकं स्थावरदश कम सातषंडस्त्रियः । अरतिः शोकश्चैताः सांतरा भवंति चतुस्त्रिशत् ॥
ज्ञानावरण पंचकर्मु दर्शनावरणीयनवक मुमंतराय पंचकमुं मिथ्यात्वप्रकृतियुं षोडशकषायंगळं १० भयद्विकमुं तैजसद्विकमुं अगुरुलघुद्विकमुं निर्माणमुं वर्णचतुष्क मुमितु ध्रुवोवयंगळु सप्तचत्वारिंशत् प्रकृतिगळं तीत्थं मुमाहारकद्विक मुमायुष्यचतुष्क मुमितय्वत्त नाल्कुं प्रकृतिगळु ध्रुवोदयबंधं गलप्पुषु । संहष्टिः - णा ५ । व ९ । अं५ । मि १ । क १६ । भय २ । ते २ । आ २ । णि १ । व ४ । ति १ । आ २ । आ ४ । हूडि ५४ ॥ नरकद्विकमुं एकेंद्रियादि जातिचनुष्कमुं पंचसंहनननं गळ' पंच संस्थानंगळु अप्रशस्तविहायोगतियुमातपोद्योतद्विकमुं स्थावर दशकमुं असातवेवनीयमुं षंडवेव स्त्रीव १५ अरतियुं शोकमुदितु मूवत्तनात्कुं प्रकृतिगळु सांतरोदय बंधंगळ ॥ संदृष्टि - णि २ । जा ४ ।
पंचज्ञानावरण नवदर्शनावरणपंचांतरायमिथ्यात्वषोडशकषायभयद्विकते जसद्विकागुरुलघुद्विक निर्माणवर्ण चतुष्काणोति सप्तचत्वारिशद् ध्रुवोदयाः । तीर्थमाहारकद्विकमायुश्चतुष्कं चेति चतुःपंचाशत्प्रकृतयो निरंतरबंधा भवति । नरकद्विकमेकेंद्रियादिजातिचतुष्कं पंचसंहननानि पंचसंस्थानान्यप्रशस्तविहायोगतिरातपोद्योती स्थावर
पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, २० जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, अगुरुलघुद्विक, निर्माण, वर्णादि चार, ये सैंतालीस प्रकृतियाँ ध्रुवोदयी हैं, अपनी-अपनी व्युच्छित्ति पर्यन्त सदा इनका उदय पाया जाता है। तीर्थंकर, आहारकद्विक, आचार, ये सात और उक्त सैंतालीस ये चौवन प्रकृतियाँ निरन्तर बन्धी हैं इनमें से सैंतालीस प्रकृतियोंका तो व्युच्छित्तिके प्रथम समय तक सदा निरन्तर बन्ध होता है । और तीर्थंकर तथा आहारकका बन्ध प्रारम्भ होनेपर जिन गुणस्थानों में इनका बन्ध होता है उनमें २५ प्रति समय बन्ध होता है। आयुका जिस कालमें बन्ध होना योग्य है वहाँ आयुबन्ध होने के पश्चात् उस कालमें प्रति समय निरन्तर बन्ध होता है। इससे इनको निरन्तर बन्धी कहा है ।
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नरकगति, नरकानुपूर्वी, एकेन्द्रिय आदि जाति चार, पाँच संहनन, पाँच संस्थान, अप्रशस्त विहायोगति, आतप, उद्योत, स्थावर आदि दस, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, ३० नपुंसक वेद, अरति, शोक, ये चौंतीस सान्तरबन्धी हैं। जैसे किसी समय नरकगतिका बन्ध
१. निरंतरबंधंगळ एंदु पाठांतरं । थावरसुहममपज्जतं साहरण सरीरमत्थिरं च असुहं दुम्भगदुस्सरणादेज्जं अज सकित्तित्ति ॥
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